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जैन श्रमण परम्परा का दर्शन
का साक्षात्कार कराने में साधक होता है। ज्ञान-वैराग्यसम्पन्न मोक्षमार्ग के पथिक की यह प्रथम भूमिका है।
यह जीवों के आयतन जानकर पाँच उदुम्बर फलों तथा मद्य, मांस और मधु का पूर्ण त्यागी होता है। इन्हें आठ मूल गुण कहते हैं जो इसके नियम से होते हैं। साथ ही वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग वाणी स्वरूप जिनागम इसके आराध्य होते हैं। यह आजीविका के ऐसे ही साधनों को अपनाता है जिसमें संकल्प पूर्वक हिंसा की सम्भावना न हो।१७।।
दूसरी भूमिका का श्रमणोपासक व्रती होता है। व्रत बारह हैं--पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । ५८ यह इनका निर्दोष विधि से पालन करता है । कदाचित् दोष का उद्भव होने पर गुरु की साक्षीपूर्वक लगे दोषों का परिमार्जन करता है और उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए उस भूमिका तक वृद्धि करता है जहाँ जाकर लंगोटी मात्र परिग्रह शेष रह जाता है।
तीसरी भूमिका श्रमण की है । यह महाव्रती होता है। यह वन में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जिन व्रतों को अंगीकार करता है उन्हें गुण कहते हैं। वे २८ हे ते हैं-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण । १९ शेष गुण जैसे-खड़े होकर दिन में एक बार भोजन-पानी लेना, दोनों हाथों को पात्र बनाकर लेना, केशलंच करना, नग्न रहना आदि ।
___ इसका जितना भी कार्य हो वह स्वावलम्बनपूर्वक ही किया जाय, मात्र इसलिए ही यह हाथों को पात्र बनाकर आहार ग्रहण करता है, हाथों से ही केशलंच करता है । रात्रि में एक करवट से अल्प निद्रा लेता है।
___ यह सब इसलिए नहीं किया जाता है कि शरीर को कष्ट दिया जाय । शरीर तो जड़ है, कुछ भी करो, उसे तो कष्ट होता ही नहीं। यदि कष्ट हो भी तो करनेवाले को ही हो सकता है । किन्तु श्रमण का राग-द्वेष के परवश न होकर शरीर से भिन्न आत्मा की संभ्हाल करना मुख्य प्रयोजन होता है, इसलिए वे सब क्रियाएँ उसे, जिन्हें हम कष्टकर मानते हैं, कष्टकर भासित न होकर अवश्य करणीय भासित होती हैं।
१५. सागारधर्मामृत २-२ । १७. सागारधर्मामृत १-१४ । १९. प्रवचनसार गा० २०८-२०९ ।
१६. रत्नकरण्डश्रावकाचार ४ । १८. वही अ. ५ ।
परिसंवाद-४
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