________________
जैन शिक्षा : उद्देश्य एवं विधियाँ
१५५
९
अनुयोगद्वार विधि तत्त्वों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनुयोग
द्वार विधि बतायी गयी है । इसके निम्नलिखित छह भेद हैं ।
(१) निर्देश - वस्तु के नाम का कथन करना ।
(२) स्वामित्व - वस्तु के स्वामी का कथन करना ।
(३) साधन - जिन साधनों से वस्तु बनी है, उसका कथन करना ।
(४) अधिकरण - वस्तु के आधार का कथन करना ।
(५) स्थिति - वस्तु के काल का कथन करना ।
(६) विधान -वस्तु के भेदों का कथन करना ।
प्ररूपण विधि - प्ररूपण के निम्नलिखित आठ भेद हैं
(१) सत् - अस्तित्व कथन करके समझाना ।
(२) संख्या --भेदों की गणना करके समझाना |
(३) क्षेत्र - वर्तमान काल विषयक निवास को ध्यान में रखकर समझाना | (४) स्पर्शन – त्रिकाल विषयक निवास को ध्यान में रखकर समझाना ।
(५) काल - समयावधि को ध्यान में रखकर समझाना ।
(६) अन्तर - समय के अन्तर को ध्यान में रखकर समझाना |
(७) भाव - भावों का कथन करके समझाना |
(८) अल्पबहुत्व - एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिक का ज्ञान करके समझाना । स्वाध्याय विधि२१
विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय विधि का उपयोग किया जाता था । इसके निम्नलिखित पाँच भेद बताये गये हैं
(१) वाचना-ग्रंथ, उसके अर्थ या दोनों का निर्दोष रीति से पाठ करना वाचना है ।
(२) पृच्छना - शंका को दूर करने के लिए या विशेष निर्णय करने के लिए पृच्छा करना - पृच्छना है ।
१९. निर्देश: स्वरूपानिधानम् । स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्तिनिमित्तम् । करणमधिष्ठानम् । स्थितिः कालपरिच्छेदः । विधानं प्रकारः । सर्वार्थसिद्धिः १1७
२०. सदित्यस्तित्व निर्देशः । संख्या भेदगणना । क्षेत्रं निवासोवर्तमानकालविषयः । तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् । कालो द्विविधः मुख्यो व्यावहारिकश्च । अन्तरं विरहकालः । भावः औपशमिकादिलक्षणः । अल्पबहुत्वमन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः । - सर्वार्थसिद्धिः ११८ २१. वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः । - तत्त्वार्थसूत्र ९।२५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
परिसंवाद-४
www.jainelibrary.org