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जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान
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अणुव्रतों का स्पष्ट रूप नहीं मिलता है, जैसा कि हम जैनयोग के अणुव्रतों के स्वरूप में, उसके अतिचारों में, तथा उसके गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत जैसे सहायक व्रतों में पाते हैं । इस प्रकार अणुव्रतों की देन जैनयोग की अपनी विशेषता है ।
पातंजलयोग शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान के रूप में नियम का उल्लेख करता है । इन सभी तत्त्वों का विस्तृत विवरण आगमों में है । यद्यपि जैनयोग सृष्टिकर्ता, कर्मफलनियन्ता, साधकों के विघ्नों के निवारणकर्ता ईश्वर की भक्ति को एवं उसके निमित्त किये गये कर्मफलत्याग को मान्यता नहीं देता है परन्तु वह अरिहन्त एवं सिद्धों के प्रति की जानेवाली श्रद्धा एवं भक्ति को इसलिए मान्यता देता है कि उनके स्मरण से साधक अपनी सुषुप्त शक्ति को स्वयं जागृत कर सके ।
आसन - दशाश्रुतस्कन्ध में श्रमण के लिए एकमासिकी, द्विमासिकी, त्रिमासिकी आदि जिन बारह प्रतिमाओं का उल्लेख है, उनमें आसनों का भी उल्लेख प्राप्त होता है जैसे कि प्रथम सप्तरात्रिन्दिवा नामक आठवीं प्रतिमा में सात रात-दिन तक उपवासपूर्वक नगर के बाहर जाकर उत्तानासन और निषिद्यासन में स्थित होकर ध्यान करने का विधान है तो नवम प्रतिमा को दण्डासन, लगुड़ासन, अथवा उत्कटुकासन में स्थित होकर संपादित करने का विधान है ।" उत्तराध्ययन सूत्र में इन्हें स्थान पद से सम्बोधित किया गया । आसन के संदर्भ में कायोत्सर्ग मुद्रा को भी विशेष स्थान मिला है, जिसे पद्मासन या सुखासन में दोनों हाथों को या तो घुटनों पर टिकाकर या बायीं हथेली रखकर संपादित किया जाता है ।
आसनों से शरीर को साधा जाता है तो प्राणायाम से प्राण को । मैडम ब्लावके अनुसार प्राण एक शक्ति है, जो विद्युदाकर्षणरूप परमाणुओं से मनुष्य के प्राणमय शरीर का निर्माण करती है इस शरीर के विद्युत्कणों में प्रकाश शक्ति और उस शक्ति का दूसरा रूप उष्णताशक्ति अन्तर्निहित है । इस संदर्भ में विचार करें तो जैन तैजस शरीर की अवधारणा प्राणमय शरीर से अत्यधिक साम्य रखती है, ऐसा प्रतीत होता है । ग्रहण किये हुये अन्न का पाचन, शारीरिक कान्ति, दीप्ति तथा स्थूल शरीर से बाहर निकलकर दूसरे पदार्थों को भस्म या अनुगृहीत करना आदि तैजसशरीर के कार्य हैं । जैन विचारणा की दृष्टि से प्राण एक दर्जा है, जो कि मन, वचन, श्वास, इन्द्रिय एवं शरीर आदि की गतिविधियों में सहयोगी एवं सक्रिय होने के कारण तदनुकूल प्रकारों में विभक्त है, जैसे कि मन-बल-प्राण, वचन-बल-प्राण आदि । यद्यपि आवश्यकनिर्युक्ति में श्वास के दीर्घ निरोध का या कहें, दीर्घ कुम्भक का आकस्मिक मरण की संभावना की दृष्टि से निषेध किया गया है परन्तु सूक्ष्म आश्वास
परिसंवाद-४
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