________________
सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरप्रदेश के कतिपय विशिष्ट जैन व्यापारी
११३ इसी समय खरगसेन का विवाह मेरठ नगर के सूरदास जी श्रीमाल की कन्या के साथ हुआ । सन् १५७६ ई० में खरगसेन ने आगरा नगर, विपुल धन का अधिकारी होकर, छोड़ दिया। जौनपुर आकर आप वहाँ के प्रसिद्ध धनिक लाला रामदास जी अग्रवाल के साथ साझे में जवाहरात का व्यापार करने लगे।२८ इन्होंने अपनी पुत्रियों का विवाह आगरा एवं पटना में धनी व्यापारियों के साथ किया । कुछ समय तक खरगसेन इलाहाबाद नगर में शाहजादा दनियाल के सूबेदारी में, जवाहरात के लेन-देन का व्यापार करते रहे । शाहजादा दनियाल द्वारा व्यक्तिगत जवाहरात की माँगों को ये ही पूरा करते थे ।२९ खरगसेन अपने जीवन के अंतिम समय तक जौनपुर में ही रहकर जवाहरात का व्यापार करते रहे। सन् १६१७ ई. में बीमारी के पश्चात् जौनपुर में इनका निधन हो गया। ७. बनारसीदास
कविवर बनारसीदास खरगसेन जौहरी के एकमात्र पुत्र थे। अधिक लाड़ प्यार के कारण बनारसीदास अपने पैतृक व्यवसाय में बराबर असफल होते रहे। इन्होंने कई बार भिन्न-भिन्न स्थानों पर व्यापार किया, लेकिन दुर्भाग्यवश सफलता नहीं मिली। सबलसिंह मोठिया ने पूर्व की ओर बनारस, जौनपुर, पटना, आदि स्थानों पर व्यापार के लिए इनको भेजा था, लेकिन उसमें भी लाभ नहीं मिला। व्यापारी होने के साथ ही आप एक कवि भी थे। इन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसमें अपने जीवन के पचपन वर्षों की घटना को लिपिबद्ध किया है, इसीलिए उसका नाम "अर्ध कथानक' रखा । इसमें उन्होंने १५८६ ई० से १६४१ ई. तक की घटनाओं का वर्णन किया है। संभवतः हिन्दी भाषा का यह प्रथम आत्मचरित्र है। कवि होने के साथ ही आप एक व्यवहार कुशल व्यक्ति भी थे। जौनपुर के अधिकारी चिनकलीच खाँ से आपकी मित्रता थी, उसको इन्होंने "श्रुतिबोध' आदि ग्रंथ पढ़ाये थे।३० बनारसीदास के आत्मचरित्र "अर्ध कथानक" से पता चलता है कि सत्रहवीं शताब्दी में न केवल उत्तरप्रदेश में, बल्कि बिहार और बंगाल में श्रीमाल, ओसवाल, अग्रवाल आदि जातियों के जैन व्यापारी निवास करते थे तथा उनकी समाज एवं शासन में प्रतिष्ठा थी । सम्राटों, सूबेदारों एवं अन्य पदाधिकारियों से इनका विशेष सम्बन्ध बना रहता था । अधिकांश जैन व्यापारी सुशिक्षित होते थे तथा सरलतापूर्वक दूसरे राज्यों की भाषाओं को सीख लेते थे।
२८. वही, पृ. ३१ ।
२९. वही, पृ. ३९ । ३०. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलायें, पृ. २९२।
परिसंवाद-४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org