________________
व्यक्ति और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में अनित्यता का ही प्रतिपादन अभीष्ट है और परवर्ती चिन्तन में ही अनित्यता के स्थान पर क्षणिकवाद का प्रस्तुतीकरण हुआ है। सत्ता के प्रति अनात्मवादी एवम् अनित्यतावादी दृष्टि एक विशेष दार्शनिक चिन्तन प्रणाली का प्रतिफल है जिसे विभज्यवाद के रूप में जाना जाता है। अपनी विभज्यवादी या विश्लेषणवादी दृष्टि को लेकर बुद्ध ने समस्त आनुभविक सत्ता को सांघातिक एवम् प्रतीत्यसमुत्पन्न माना है अतः व्यक्ति और समाज का स्वरूप भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। व्यक्ति का स्वरूप
व्यक्ति के स्वरूप के बारे में बौद्ध दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति पञ्चस्कन्ध के सिद्धान्त के रूप में हुई है जिसका स्पष्टतम प्रतिपादन 'मिलिन्दपञ्हो' में हुआ है। मानवीय व्यक्तित्व के रूप में किसी सातत्यवान् प्रागनुभविक अनादि एवम् अनीश्वर सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार कर बौद्ध दार्शनिक इसे रूप स्कन्ध, नाम स्कन्ध, संस्कार स्कन्ध, विज्ञान स्कन्ध एवम् वेदना स्कन्ध में विश्लेषित करते हैं। वैसे तो यह पाँचों स्कन्ध रूप हैं और इन्हें पुनः आणविक तत्त्वों में विश्लेषित किया जाना चाहिए था परन्तु बौद्ध दार्शनिकों ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया ऐसा लगता है।
व्यक्ति की इदंता बौद्ध चिन्तन में स्वीकार की गई है परन्तु इसका सांवृतिक या सांव्यावहारिक अस्तित्व एवम् मूल्य ही यहाँ मान्य है। पारमार्थिक दृष्टि से न तो व्यक्ति की सत्ता है और न इदंता, परन्तु इस दृष्टि को जब अनात्मवाद की संज्ञा दी जाती है तो उसका तात्पर्य यह नहीं होता है कि इसमें आत्मा का निषेध किया गया है। इसका मात्र यही मन्तव्य है कि पारमार्थिक सत्ता के रूप में आत्मा का अस्तित्व नहीं है । आत्मा का स्वरूप सांघातिक है, वह अनुभव प्रदत्त है और सतत परिवर्तन शील पञ्चस्कन्धों का समुदाय है । जब तक यह समुदाय अस्तित्व में रहता है, व्यक्तित्व की इदंता भी अस्तित्व में रहती है। समस्त जागतिक क्रिया-कलाप इसी पर आधारित रहते हैं। यह इदंता न केवल वर्तमान जीवन में ही समाहित रहती है वरन् भावी जीवन में भी बनी रहती है। इसी आधार पर बौद्ध विचारधारा में पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अस्वीकृत नहीं किया गया है । वस्तुतः इदंता की स्वीकृति न केवल आनुभविक प्रमाण से पुष्ट होती है वरन् यह स्मृति, प्रत्यभिज्ञा एवम् ममत्व की पूर्वमान्यता भी है । व्यक्तित्व की स्वीकृति एवम् उसकी इदंता की रक्षा एक व्यावहारिक आवश्यकता है, जिसकी स्वीकृति किये बिना न तो मानव जीवन के वैयक्तिक पहलू की व्याख्या हो सकती है और न सामाजिक पहलू की। क्षणभंगवाद की पृष्ठभूमि में
परिसंवाद २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org