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________________ ६६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ पद्धति है और अगर समाज व्यवस्था से तो दूसरी । किन्तु पद्धति का प्रश्न तो क्रम का प्रश्न है, फल का नहीं । व्यवहार में, काम करने का एक सिलसिला बनाया जा सकता है । पहले अपने चित्त का दमन करें, फिर दूसरे को उपदेश करें, आदि । लेकिन इस कामकाजी क्रम से व्यक्ति या समाज में से एक या दूसरे पर आत्यन्तिक बल नहीं पड़ता । यहाँ यह या वह का प्रश्न नहीं, दोनों ही का है । फिर भी, अचेत रूप में एक भ्रम शायद भाषा के कारण हो जाता है ध्यान भावना में तो सबका भला 'भवतु सब्ब मंगलम्' एक साथ मनाया जा सकता है, किन्तु कहने में कोई पहले, कोई बाद में आता है । भाषा पूर्वापर बाँटती है और अपनी ही कोटियों का कैदी बनाती है। एक या दूसरे में चुनने के लिए विवश करती है । जब कि कोटियाँ नहीं हैं, फिर भी वह है । सचेत रूप में, आधुनिक पाश्चात्य विचार व्यवहार की स्थापित प्रणालियाँ यह संशय उत्पन्न करती हैं। वह जैसे इसपर बल देती हैं कि या तो कोई व्यक्तिवादी हो या फिर समष्टिवादी, इनसे भिन्न नहीं । जैसे शीत युद्ध के दिनों में अमेरीकी और रूसी गुटों की ओर से कहा जाता था कि या तो इस गुट में रहो या उसमें । किन्तु भारत सहित एशिया - अफ्रीका, लैटिन अमेरीका के देशों ने इस बात का प्रयत्न किया कि वह दोनों ही गुटों से निरपेक्ष रहकर तीसरी स्वतन्त्र शक्ति बनाएँ । इसी तरह सम्यक् दृष्टि के लिए व्यक्तिवादी या समष्टिवादी, स्ववादी या परवादी कोटियों के बन्धन में पड़ना तो प्रवाह में पतित होना है । सम्यक् दृष्टि में स्व-पर परिवर्तन और समता है । अब इसमें सत्त्वों के चरित में भेद हो सकता है। कोई प्रधानता की दृष्टि से व्यक्ति चरित हो सकता है, कोई समष्टि-चरित, व्यक्ति की ही तरह, समाज भी । प्रधानता की दृष्टि से व्यक्तिवादी या समष्टिवादी समाज हो सकता है । इस दृष्टि से उनकी चर्याओं में भेद भी होगा । किन्तु इन चर्याओं के भेद से सिद्धि में भेद नहीं । सिद्धि तो उस अद्वय, युगनद्ध दशा को ही प्राप्त करना है जिसमें स्व-पर का भेद नहीं । ऐसा लगता है कि बुद्ध की सम्यक् दृष्टि में आधुनिक भार संशय पैदा करता है, जब वह व्यक्तिवादी या समष्टिवादी अन्त में पतित होने को प्रेरित करता है । जब वह भार देख लिया जाता है तो संशय जाता रहता है । व्यष्टिवादी समष्टिवादी मिथ्या दृष्टियाँ झड़ जाती हैं । सम्यक् दृष्टि इन दोनों ही अन्तों का परिहार कर मध्यस्थ रहती है । इस सम्यक् दृष्टि से ही व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध देखे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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