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( आ ) भी उपस्थित होती रही हैं, उनका समाधान शास्त्रीय एवं लौकिक दोनों ही दृष्टियों से मेरे गुरुजनों ने किया है। आचार्य पं० बदरीनाथ शुक्ल, भूतपूर्व कुलपति तथा प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय, डीन, श्रमण विद्या संकाय (सं० सं० वि० वि० वाराणसी) ने सदा तत्परता पूर्वक सहायता की है । वे हमारे गुरु हैं उनकी सहायता के विना इन नवीनमूल्यों से परम्परागत शास्त्रधारा को जोड़ने का काम कथमपि संभव नहीं हो सकता था। परिसंवाद के इस स्वरूप में भाग १ का नाम करण भी इसी कारण हो रहा है क्योंकि कुछ और संगोष्ठियों के विचारों को इसमें छापना था, पर परिसंवाद के आकार के बढ़ जाने से वह एक साथ नहीं छप सका, अतएव शीर्षक को ध्यान में रखकर उसको द्वितीय भाग के रूप में छापा जायेगा। शीर्षक, भूमिका एवं सामयिक परामर्श के द्वारा गुरुजनों ने जो उत्साह बढ़ाया है उसके लिए मैं श्रद्धावनत है। आदरणीय पं० रामशंकर त्रिपाठी "व्यष्टि समष्टि परिसंवाद" के निदेशक रहे हैं तथा इस संपादन कार्य में भी सदा सहायता करते रहे हैं। उनके ही सत्परामर्श एवं निर्देशन से यह काम बन पाया है। अतएव मैं उनका बहुत आभारी हूँ तथा एतदर्थ उनको धन्यवाद ज्ञापित करना अपना कर्तव्य मानता हूँ। परिसंवाद के इस भाग को प्रकाशित करने में जिस प्रकार की तत्परता डॉ० हरिश्चन्द्रमणि त्रिपाठी ने दिखायी है, वह मेरे उत्साह में काफी सहायक रही है। प्रतिदिन सामयिक परामर्श के लिए प्रकाशनाधिकारी महोदय को धन्यवाद देना मेरा परम पुनीत कर्तव्य है। छपने को सम्पूर्ण व्यवस्था में लगे सभी सम्बन्धित लोगों की सहायता के विना यह कार्य इतना शीघ्र नहीं सम्पन्न हो सकता था, अतएव सभी व्यवस्थापकों का मैं बहुत आभारी हूँ तथा एतदर्थ धन्यवाद देता हूँ।
राधेश्यामधर द्विवेदी
प्राध्यापक तुलनात्मक धर्मदर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय
वाराणसी
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