________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ (५) विपस्सनालाभी पुरुष-कुशल चित्तसम्प्रयुक्त प्रज्ञा विपश्यना है। धर्मस्वभाव का विशेष रूप से दर्शन ही इसका कार्य है। वह क्या है ? धर्म का जो आपाततः उपलब्ध रूप है, वह क्रमशः मरीचिका सदृश अनुभूत होने लगता है तथा इस तथ्य का साक्षात्कार हो जाता है कि सभी संस्कार अनित्य, दुःख तथा अनात्म हैं। इससे बाह्याकार, लक्षण तथा धर्मस्वभाव का यथार्थावबोध हो जाता है । जो अनित्य है, वह दुःख है, जो दुःख है वह आत्मा नहीं हो सकता है। जब आत्म्य नहीं है, तो वह 'स्व' रूप से न तो ग्राह्य है, न उसका आधार ही बन सकता है। ऐसे अवबोध से आधारभूत 'स्व' की भित्ति प्रकम्पित हो जाती है। अब इस मनोदशा के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि अवबोध के धरातल पर दुर्बल रूप में 'स्व' परिज्ञात होता है, पर भावना के धरातल पर परीक्षित नहीं रहता है ।
(६) ब्रह्मविहारी-आर्यविहार को ब्रह्मविहार कहते हैं। उससे युक्त पुरुष ब्रह्मविहारी है। वह क्या है ? मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा चार उदात्त मूल्य हैं। उनसे सम्पृक्त चित्त द्वारा समस्त दिशाओं को व्याप्त कर विहार करना ब्रह्मविहार या श्रेष्ठ विहार है। यह विहार असीम है। विश्व की जिस किसी दिशा में स्थित स्थूल, सूक्ष्म या अणुरूप जो कोई प्राणी हों, वे सुखी होवें-यह मैत्री-सम्पृक्त चित्तविहार है। समस्त दुःखी प्राणी दुःखविरहित होवें, यह करुणा-सहगत चित्त का स्फुरण है । उत्तरोत्तर विकासोन्मुख सुखसम्पन्न प्राणियों के प्रति आनन्द प्रतिलाभ ही मुदिता-सम्प्रयुक्त चित्त का विस्फार है। अबोध जनों की अबोधता के प्रति उपेक्षायुक्त हो, उनके सम्यक् अवबोध की उदात्त कामना पूर्वक दिशास्फरण उपेक्षासम्प्रयुक्त चित्तविहार है । यहाँ चित्त में ऋजुता, मुदृता, कर्मण्यता, प्रागुण्यता आदि भाव सहज . रूप से जाग उठते हैं । अकुशल वृत्तियों के गतिरोध के लिए विरतियाँ भी जाग्रत हो जाती हैं । पर इन समस्त कार्यों का क्षेम मनोधरा रहता है।
(७) समयविमुक्त-यह इस प्रकार के पुरुष का अधिवचन है जो समथ तथा विपश्यना का लाभ तो कर लिया रहता है, पर 'स्व' के आबन्धन रूप समस्त संयोजनों को विनष्ट नहीं किये रहता है। इसमें 'स्व' संधारण का दुर्बल आधार अंशतः विद्यमान रहता है। इसलिए इसे समयविमुक्त कहा जाता है। इसके अन्तर्गत चार मार्गस्थ तथा तीन फलस्थ पुद्गल आ सकते हैं। यहाँ पाँच ओरंभागीय संयोजन तो प्रहीण रहते हैं, पर उद्धंभागीय विद्यमान रहते हैं।
(८) असमयविमुक्त-समथविपश्यनालाभी समस्त संयोजनों से मुक्त पुरुष को असमयविमुक्त या पूर्णतः विमुक्त कहा जाता है । यहाँ पहुँच चित्तसन्तति में व्याप्त 'स्व' परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org