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बौद्ध विनय की दृष्टि में सम्बन्धित संघ के नियमों का परिपालन करना होगा। विभिन्न सम्बन्धों के माध्यम से व्यक्ति पर विभिन्न समाज अथवा संगठन का प्रभाव पड़ता है और विभिन्न समाज एवं संगठन से सम्बद्ध सुख-दुःख का वह भागीदार बन जाता है। इसमें कारण सामाजिक चेतना होती है, जिससे सम्बद्ध समाज के लिये व्यक्ति को अपना सर्वस्व तक कभी-कभी निछावर कर देना पड़ता है। संघ और व्यक्ति के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों पर विनय पिटक में अच्छा प्रकाश मिलता है।
बौद्ध वाङ्मय में जहाँ व्यक्ति और संघ की व्यवस्था है, वहीं संघ और भिक्षु की सापेक्षता से भी अधिक 'स्व' और 'पर' का विचार प्रायः सभी जगह पाया जाता है, भिक्षु का संघ से सम्बन्ध एक सीमा तक है, वह नित्य अथवा सर्वांश सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता। भिक्षु की चेतना का संघ की सामुदायिक चेतना में अन्तनिवेश तो है । किन्तु उसकी स्वयं की भी एक चेतना है, जो उसे निर्वाण की दिशा में ले जाती है।
बौद्ध सिद्धान्त में मानव समाज का विशिष्टीकरण नहीं किया गया है। सभी जीवों को समान माना गया है और सभी जीवों के हित को एक जैसा महत्त्व दिया गया है । इस कारण सर्वसत्त्व शब्द का प्रयोग किया जाता है, समाज शब्द का नहीं।
परिसंवाद-२
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