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सामाजिक समता सम्बन्धी संगोष्ठी का विवरण
३५३ आत्मदृष्टि एक प्रकार की बुद्धि है, जिसका आधार अहं की सत्ता है। विश्लेषण करने पर अहं नामक किसी पदार्थ की सत्ता का अस्तित्व नहीं उपलब्ध होता है, फलतः आत्म दृष्टि स्वतः विगलित हो जाती है। आत्म दृष्टि ही विषमताओं की जनक है। जब यह दृष्टि विगलित होती है तो व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होता है और स्वार्थमूलक न होकर समाजमूलक बनने लगता है।
यहीं के प्राकृत विभाग के अध्यक्ष डॉ० गोकुलचन्द जैन ने कहा-जैन चिन्तकों ने समता के लिए स्वातन्त्र्य तथा सामान्य की अनुभूति पर अधिक जोर दिया है। पारतन्त्र्य विषमता का मूल है पर स्वातन्त्र्य की भी मर्यादा है, इसीलिए महावीर ने सामान्य की महत्ता के साथ विशेष को अपनी सीमा का बोध कराया और इसी कारण उनके संघ में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमता विखर कर आम आदमी की समानता में समा गयी । इस समानता के बोध के लिए भगवान महावीर ने एक चिन्तन प्रस्तुत किया, जिसे अनेकान्त का चिन्तन कहते हैं, यह जीवन में समन्वय का मार्ग खोलता है और दुराग्रह से मुक्ति दिलाता है। अतः वर्तमान सन्दर्भ में महावीर के विचारों से समता की स्थापना में सहयोग मिल सकता है।
श्री अमृतलाल जैन, भू० पू० प्राध्यापक, जैनदर्शनविभाग (सं० सं० वि० वि० वाराणसी), ने कहा कि भगवान् महावीर मानव समता के समर्थक थे, क्योंकि उन्होंने विना जातिभेद के सबको अपने संघ में स्थान दिया। उन्होंने शास्त्र वचनों के आधार पर बताया कि आर्यों में संचयवृत्ति न होने के कारण आर्थिक समता होती है तथा वर्ण या जाति न होने से सामाजिक समता होती है। इस प्रकार जैन विचार समता के परिपोषक हैं।
श्री देवी प्रसाद मिश्र (अनुसन्धाता प्रयाग वि० वि०) ने जैन पुराणों के विवेचन के आधार पर समता की व्याख्या करते हुए कहा कि समाज से विशेषाधिकारों एवं असमानता को दूर करके समन्वय की धारा से समानता स्थापित हो सकती है।
काशीविद्यापीठ के प्रो० कृष्णनाथ ने समता के विविध आयामों का पर्यवेक्षण करते हुए कहा-वर्तमान सदी के पूर्व समता का तात्पर्य अवसर की समानता से लिया जाता है। पर यह अवसर की समानता असमानता का कारण है। इसमें पिछले लोग समान अवसर होने पर भी पिछड़े ही रहते हैं, अतः विशेष अवसर देने पर ही उनको समता मिल सकती है । चरम लक्ष्य के रूप में निरपेक्ष समता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व में भेद नहीं है । पर विशेष-विशेष रूपों में सापेक्षिक समता एवं स्वतन्त्रता में
पारसबार-२
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