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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
की जायेगी, जिसमें विद्वानों के शास्त्रीय विचारों को लेकर समाज हित सम्पन्न करने के लिए शासन को सुझाव दिया जायेगा । अतएव राष्ट्र एवं मानव के हित में पण्डितों का चिन्तन प्रारम्भ होना चाहिए । उन्होंने गोष्ठी में आये हुए सभी विद्वानों को धन्यवाद दिया ।
उपर्युक्त विचार गोष्ठी के सन्दर्भ में संस्कृत अकादमी, लखनऊ की सहायता से 'भारतीय शास्त्रों में समता के स्वर' विषय पर दिनाक १६-८- ७८ से दिनाङ्क १९-८-७८ तक की एक चतुर्दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इसकी कुल चार बैठकों में प्रथम बैठक उद्घाटन, विषय प्रस्तावना आदि से सम्बन्धित थी । द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ बैठकें क्रमशः दर्शन, पुराण, योगतन्त्र आदि की दृष्टि से उल्लेखनीय थीं ।
गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध मनीषी विद्वान् डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विराट भारतीय संस्कृति के दर्शन, कला, साहित्य, तन्त्र आदि विभिन्न पक्षों का विश्लेषण करते हुए आधुनिक अशान्त एवं संत्रस्त विश्व में शान्ति, समता, मानवता आदि मूल्यों के योगदान की विस्तृत चर्चा की। उनके विचार से भारतीय संस्कृति में वह सार्वभौम समता का बीज विद्यमान है जो आधुनिक भारत तथा विश्व को इसकी स्थापना में योगदान दे सकता है ।
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अपने विशिष्ट व्याख्यान में विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० टी० आर० बी० मूर्ति कहा- - सामान्य रूप से यह जनप्रसिद्धि है कि सामाजिकसमता, स्वतन्त्रता आदि मानवीय मूल्य पाश्चात्त्य विचारकों की देन हैं पर यह बात बिल्कुल सही नहीं है । भारत में भी दर्शनों में आध्यात्मिक समता पर बल दिया गया है । इन आध्यात्मिक समता के मूल्यों को जनजीवन में और आचरणों में सदा से भारतीय मनीषीगण लाते रहे हैं । इस प्रकार समता के मूल्य समाज में सर्वदा रहे हैं । भारतीय दर्शनों अध्यात्म के द्वारा जीवन को विकसित करने का सांगोपांग विवरण दिया है । अतः सामाजिक समता के विकास में भारतीय दर्शनों का निःसंदिग्ध योगदान है ।
विषय की प्रस्थापना करते हुए प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय ने कहा - भारतीय मनीषी विचारों में कभी असहिष्णु नहीं रहे । जीवन के विविध पक्षों का उन्होंने गम्भीर एवं महनीय विश्लेषण किया है । आधुनिक जीवन मूल्यों का भारतीय संस्कृति के सूत्रों के साथ सम्बन्ध जोड़ना आज की ज्वलन्त आवश्यकता है । भारतीय शास्त्रों
विद्वानों को इस दिशा में सम्मिलित प्रयास करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि शास्त्रों में सारी बातें ज्यों की त्यों मिल जाएँ । यह भी सही नहीं है कि दीर्घकालव्यापी भारतीय सांस्कृतिक धारा में सब कुछ अमृतमय ही हो, विष कुछ भी न हो ।
परिसंवाद - २
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