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आधुनिक युग में समता
श्री गणेशसिंह मानव
प्रत्येक युग की अपनी भूख-प्यास होती है । आज के युग की भी अपनी आवश्यकताएँ हैं । इतिहास गतिमान रहता है । भूगोल अपना कलेवर बदलता रहता है । आलसी अपनी जगह से न हिलना चाहे, तब भी युग के चरण गतिमान रहते हैं । यह बीसवीं शती का अन्तिम चरण चल रहा है । वसुधा का मानव समाज कुटुम्ब बन चुका है। वर्तमान युग नये मानव-दर्शन का निर्माण कर रहा है । प्राचीन दर्शन अपने पहरे से वापस हो चुके हैं ।
वर्तमान युग साम्य-योग का निर्माण कर रहा है । वैषम्य के आधार पर विनिर्मित व्यवस्थाएँ हिल डोल रही हैं, चरमरा रही हैं, टूट रही हैं । परिवर्तन के कामी उत्साह पाकर और अधिक जोर लगाने का प्रयास कर रहे हैं। परिवर्तन की गति तीव्र करने के निमित्त चिन्तित हैं । सुविधा प्राप्त वर्ग के परिवर्तन विरोधी युग की गति में अवरोध उत्पन्न करने की चेष्टाएँ कर रहे हैं । युग का प्रवाह प्राकृतिक है. रुकता नहीं, पर उसमें विलम्ब तो किया ही जा सकता है, और किया जा रहा है । उपर्युक्त दो परस्पर विरोधी प्रयासों के द्वन्द्व ने जिस अशान्ति को जन्म दिया है, उसको वे बुधजन तो आशा की किरण मान रहे हैं जो क्रान्ति की प्रक्रिया को समझते -बूझते हैं, परन्तु वे विद्वान् भी दुःखी हैं जो ग्रन्थों के तो पण्डित हैं, परन्तु युग के प्रवाह से अलग किसी किनारे अटके-भटके पड़े हैं । साम्य-योग की पूर्णता के पूर्व यह अशान्ति बढ़ती ही जायेगी जिसकी चरम परिणति पर नये समाज की
नींव पड़ेगी ।
जनसंख्या को या जनसमूह को समाज नहीं कहा जा सकता। इनके संगठन को ही समाज माना जाता है । व्यक्ति जब समष्टि में अपने व्यक्तित्व को समर्पित कर देगा, तब वह सही अर्थ में सामाजिक प्राणी होगा । और ऐसे ही लोगों से बने संघटन को समाज की संज्ञा प्राप्त होगी। ऐसा समाज ही अन्ततोगत्वा, नये मानव-दर्शन या जीवन-दर्शन का निर्धारण और निर्माण करेगा । वर्तमान दर्शनों के जीवन्त तत्त्व उस नये जीवन-दर्शन में भी अपना उचित स्थान अपने बलबूते प्राप्त कर लेंगे । इस प्रकार से अधिकार प्राप्त समाज अपने संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार काम और उसकी आवश्यकता के अनुकूल दाम देने की व्यवस्था करेगा । जीवन की मौलिक आवश्यकतों की पूर्ति की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेगा । इस प्रकार सामाजिक समता का योग सम्पन्न होगा ।
परिसंवाद - २
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