________________
३१४
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
समता और समता के जरिये सम्पन्नता सम्भव है ? या यहाँ तो शासक वर्ग के लिए स्वेच्छा अपनायी गयी गरीबी के जरिए ही समता का व्यवहार किया जा सकता है ।
५. समता की अपार सम्भावनाएँ हैं, सीमाएँ भी । दर्शन में तो समता की पूर्णता में कोई अटक नहीं है । किन्तु व्यवहार में समय और समाज को विवशताएँ हैं । कुछ तो कल्पित हैं, कुछ वास्तविक हैं। सत्ता-व्यवस्था की जरूरते हैं। इनके कारण पूर्ण समता की प्राप्ति सम्भव नहीं। इसलिए असमता आदर्श नहीं हो सकती। आदर्श तो पूर्ण समता ही है। समता के पूरे प्रकाश के लिए क्या उपाय जरूरी है ? या नहीं जरूरी है ? इस पर मतभेद हो सकता है। इसे सद्भाव से दूर किया जा सकता है । अन्यथा नहीं।
विषमता के रोगी समाज और व्यक्ति के लिए किस मात्रा में समता गुन करेगी, किस मात्रा में बेगुन, इसका विवेक जरूरी है। अन्यथा कभी-कभी अच्छे इरादे से बुरे नतीजे निकलते हैं। ... फिर, यह भी ध्यान रहे कि समता का क्रान्तिकारी लक्ष्य एक ओर स्वतन्त्रता
और दूसरी ओर भाईचारा के साथ है। इनको खारिज करके नहीं। अपने चरम रूप में निरपेक्ष समता, स्वतन्त्रता और बन्धुता में भेद नहीं, अभेद है । सो ही सहज है, सुख है, शान्ति है। किन्तु विशेष-विशेष रूपों में सापेक्षिक समता और स्वतन्त्रता
और सहजता में टकराहट भी हो सकती है। इसलिए इनमें सामञ्जस्य, सामरस्य, ताल-मेल बैठाना जरूरी है। ... समता की प्रज्ञा के बिना उपाय चालाकी और उपाय के बिना प्रज्ञा आत्मघाती है । इसलिए समता के आचरण में प्रज्ञा और उपाय दोनों की जरूरत है।
जो भी हो, समता की सम्भावनाओं के साथ-साथ इसकी सीमाओं का ध्यान रखना भी समता के सम्यक दर्शन-आचरण के लिए जरूरी है। किन्तु सीमाओं के कारण आदर्श छोड़ना नहीं। न ही सत्ता-व्यवस्था के साथ दुरभिसंधि करना । या मन में कुछ, बचन में कुछ, कर्म में कुछ करना । वह तो पाखण्ड है । समता नहीं।
- अन्त में भारतीय दर्शन की परम्परा में समता का क्या रूप है ? यह प्रश्न तो अलग से विचार का विषय है । इसलिए अभी इतना ही निवेदन है।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org