________________
२९४
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
पुत्र अपने माता-पिता को दुःख की अवस्था में छोड़कर स्वयं ऐश्वर्य का उपभोग करे तो वह निन्दनीय समझा जाता है, उसी तरह जब सभी प्राणियों या पूरे समाज का एक व्यक्ति के निर्माण में योगदान है तो उसे बिना दुःख से मुक्त किये स्वयं एकाकी मुक्ति की साधना करना महायान की दृष्टि में एक स्वार्थपूर्ण कार्य समझा जाता है। अतः इस करुणा का लक्ष्य स्वयं की मुक्ति नहीं, अपितु समस्त प्राणियों की दुःखों से निवृत्ति और सुखों की प्राप्ति निर्धारित किया गया है। यह सुख-प्राप्ति भी आत्यन्तिक सुख-प्राप्ति ही नहीं है, अपितु लौकिक सुखों की प्राप्ति कराना भी इसमें निहित है । इसी लिये बोधिचर्यावतार में कहा गया है
मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रामोद्यसाग़राः।
तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम ॥ एक और विचारधारा है। यह जो स्व और पर माननेवाली भेदबुद्धि है, इसका इसके अतिरिक्त और कोई मूल नहीं है कि हमने अनादिकाल से इस तरह सोचने का अभ्यास कर लिया है अथवा समाज की ओर से इस तरह सोचने को बाध्य किया गया है । 'स्व' और 'पर' का विश्लेषण करने पर कहों पर भी वैसा कोई स्थायी तत्त्व उपलब्ध नहीं होता। जब ऐसी स्थिति है तो इससे विपरीत अभ्यास करके स्व को पर के रूप में तथा पर को स्व के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में दूसरों का सारा दुःख अपना दुःख हो जाता है। इसका तात्पर्य परार्थ ही स्वार्थ बन जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि करुणावान् व्यक्ति उन लोगों से अपने को पृथक् नहीं करता, जिनके दुःखों की तिवृत्ति के लिये वह प्रयास करता है। फलतः इस कार्य से उसमें अहंकार की वृद्धि भी नहीं हो पाती। इस प्रकार की विचारधारा के मूल में बौद्धों का शून्यवादी दर्शन ही है।
- करुणा का मूल पहले दुःखी प्राणी और बाद में केवल दुःखमात्र हो जाता है। करुणावान् व्यक्ति समाज के हित में अपने व्यक्तित्व का विलोप कर देता है। वह जिन-जिन स्रोतों से दुःख जन्म लेता है, उसके स्रोतों को सुखाने में आत्मबलिदान के लिये सदा तत्पर रहता है। वह ऐसी विषम सामाजिक व्यवस्थाओं को तोड़ने में, जिनसे दुःख पैदा होता है तथा ऐसी सामाजिक व्यवस्थाओं की स्थापना में, जिनसे बहुजन का सुख, बहुजन का हित सम्पन्न होता हो, अपने प्राणों की बाजी लगा देता है । ऐसा व्यक्ति महायान की शब्दावली में बोधिसत्त्व कहलाता है, जिसने दुःख के स्रोतों को सुखाने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर ले रखा है। उसकी यह उत्तरदायित्व की भावना ही महाकरुणा कहलाती है। इस करुणा से वह किसी प्रकार का परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org