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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं व्यक्ति और समाज
बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्तित्व विभिन्न घटक अवयवों का एक गतिशील सम्पंजनमात्र है। इसके उपादानों में कोई भी एक ऐसा तत्त्व नहीं है, जो गतिहीन, अचल और कूटस्थ हो । इसके अवयवों में जड़ और चेतन दोनों प्रकार के अवयव होते हैं। इसमें विभिन्न सामाजिक और वैयक्तिक प्रभाव, मान्यतायें, धारणायें, संस्कार, स्मृतियाँ, आकांक्षायें और वासनायें संगृहीत होती हैं। जैसे प्याज के एक-एक छिलके को हटाते-हटाते अन्त में कुछ शेष नहीं रहता, इसी तरह पूरे व्यक्तित्त की एक-एक गहरी से गहरी परतों का विश्लेषण किया जाय, तो अन्त में कोई स्थायीतत्त्व उपलब्ध नहीं होता।
किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए परस्पर सम्बद्ध और कार्यरत ऐसे व्यक्तियों का समूह ही समाज है। इस व्यक्ति-अवयवों से अतिरिक्त समाज की कोई निरपेक्ष या स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। समाज एक चेतना है, जो प्रत्येक व्यक्ति में प्रतिफलित होती है, किन्तु उन चेतनाओं को किसी उद्देश्य के लिए परस्पर सम्बद्ध और कार्यरत होना चाहिए। समता
समता का कोई तात्त्विक अस्तित्व नहीं, अपितु यह विषमताओं का अभाव है । विषमताओं का निषेध कर देने पर विशेष व्यवहार या व्यवस्था के रूप में समता का प्रतिफलन होता है। विषमतायें वे हैं, जो किसी व्यक्ति को अन्य व्यक्ति से या किसी मानव समुदाय को अन्य मानवसमुदाय से पृथक् करती हैं। जैसे-वर्ण, जाति सम्प्रदाय, किसी शास्त्र या गुरु के प्रति आस्था, राजनीतिक पार्टी, राष्ट्रियता आदि । ये सब मनुष्य को मनुष्य से पृथक् करते हैं। ये सब धारणायें हैं, जिन्हें मनुष्य ने अपने ऊपर आरोपित कर लिया है और उनसे अपना तादात्म्य स्थापित कर लिया है। इसके मूल में व्यक्ति का भय और लोभ है। अपने को सुरक्षित करने के लिये या किसी लाभ के लिये व्यक्तियों ने इनका आरोपण किया है। इस लाभ और भय के मूल में भी व्यक्ति का अपने निरपेक्ष अस्तित्व के प्रति आग्रह है। अर्थात् आत्मदृष्टि इन सारी बुराइयों की जड़ में है। आत्मदृष्टि एक प्रकार की बुद्धि है, जिसका आधार अहम् की सत्ता है । जब व्यक्तित्व के सारे उपादानों का विश्लेषण किया जाता है और जब अहम् नामक किसी पदार्थ का पृथक् अस्तित्व उपलब्ध नहीं होता, तब आत्मदृष्टि अपने-आप विगलित होने लगती है। आत्मदृष्टि का विनाश हो जाने पर उस पर आधारित उपर्युक्त सारी विषमतायें अपने-आप कारणों सहित विलुप्त होने लगती हैं। परिसंवाद-२
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