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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं विश्लेषण करना बहुत कठिन या असम्भव हो जाता है। व्यक्ति के घटक उपादानों में नित्य एवं स्थिर पदार्थों का जिस मात्रा में योगदान माना जाएगा, उसी मात्रा में व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों के अध्ययन का अवसर कम होता जाएगा। इस दृष्टि से प्राचीन भारतीय दर्शन दो भागों में विभक्त हो जाते हैं-(१) नित्य और स्थिरतावादी और (२) अनित्य एवं अस्थिरतावादी। आत्मा की नित्यता के आधार पर नित्यतावादी दर्शन व्यक्ति को यथासम्भव अन्य निरपेक्ष, स्वगत एवं स्वयम्भ मानते हैं। ऐसे दर्शनों में परिणामवादी सांख्य और पर्यायवादी जैनदर्शन एक सीमा में इस प्रकार की चेष्टा अवश्य करते हैं, जिससे नित्य आत्मा का भी बाह्य जगत् से ऐसा सम्बन्ध बना रहे, जिससे बाह्य संसार की ओर से आने वाले संस्कार और विकारों के प्रभाव के आधार पर भी व्यक्ति की व्याख्या की जा सके। आंशिक रूप में भी नित्यतावादी न होने के कारण बौद्ध दार्शनिकों को इसके लिये अधिक अनुकूलता है कि वे सापेक्षता के आधार पर व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का विश्लेषण कर सकें । व्यक्ति-सम्बन्धी सापेक्षता का सिद्धान्त समाज के परिवर्तनशील सम्बन्धों को आकलित करने एवं उन्हें ग्रहण करने में अधिक सक्षम है। व्यक्ति-निर्माण
व्यक्ति निर्माण के दो मुख्य उपादान-समूह हैं, जिनके स्वरूप में अंशतः भी नित्यता या स्थिरता नहीं है, वे उपादान ये हैं-(१) चेतनाप्रधान चित्त और (२) जडप्रधान शरीर और इन्द्रियाँ । जड से चेतन या चेतन से जड या उनमें परस्पर पौर्वापर्य के सिद्धान्त से बौद्ध दार्शनिक कथमपि सहमत नहीं हैं। वे जड और चेतन के वीच सहवर्तित्व और सापेक्षता के सिद्धान्त को मानते हैं। इस प्रकार व्यक्ति के निर्माण के लिए उसके उपादानों में जड-चेतन पदार्थों की नितान्त अपेक्षा है। अन्यापेक्षता और सहवर्तित्व का सिद्धान्त सिर्फ जड-चेतन के मध्य ही नहीं, प्रत्युत स्वतन्त्ररूप से जड जगत् और चेतन जगत् पर भी लागू है। इस प्रकार एक ओर वस्तुएँ जैसे अपने सजातीय उपादानों की अपेक्षा से खड़ी हैं, वैसे ही विजातीय उपादानों के बल पर भी। सभी दृष्टियों से वस्तु-सत्ता की अनिवार्यता है-अन्यापेक्षता। कारणता की व्याख्या भी बौद्धदृष्टि से नियमित अन्योन्यापेक्षता ही है। अन्य निरपेक्षता कारणता के बहिर्भूत है। इतना ही नहीं, वह वस्तु-सत्ता के भी बहिर्भूत है। इसीलिए नित्यता या स्थिरता को कभी भी कारण-कार्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता। प्रयोजन-विशेष की निष्पत्ति वस्तु का असाधारण लक्षण है। अन्य निरपेक्षता की स्थिति में प्रयोजन-सिद्धि की सम्भावना समाप्त हो जाती है। आश्रय और आश्रयी के रूप में भी किसी नित्य पदार्थ की सम्भावना नहीं है। जिन परिसंवाद-२
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