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वैष्णवतन्त्रों के सन्दर्भ में समता के स्वर
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'सर्वभूतानुकूलता' का आधार ईश्वर का सभी प्राणियों में अन्तर्यामिरूप में अवस्थित होना है। प्रातिकूल्यवर्जन का अर्थ इसी प्रकार है। स्पष्ट है कि शरणागति मानवमात्र के ही लिए न होकर प्राणिमात्र के लिए है। जैसा कि विष्णुचित्त का कथन है--
श्येनकपोतीयकपातोपाख्यानकाकविभीषणक्षत्रबन्धुमुचुकुन्दगजेन्द्रद्रौपदीतक्षकशतमखादिषु मोक्षार्थतया क्षणकालनिर्वयंप्रपदनार्थदर्शनात् अबधिराणां तत्र मुख्यत्वम् ।'
वैदिक कर्म धर्म तथा शरणागति में कई दृष्टियों से अन्तर है१-देशनियम-पूण्यक्षेत्रों में ही वैदिक कर्म हो सकते हैं। शरणागति कहीं भी
___ की जा सकती है। २-कालनियम-बसन्त आदि समय में वैदिक कर्म हो सकते हैं। शरणागति
कभी भी की जा सकती है। ३-प्रकारनियम-विशिष्ट तथा निर्दिष्ट प्रकार से ही वैदिक कर्म होते हैं।
शरणागति इस बन्धन से भी रहित है । ४-अधिकारिनियम-वैदिक कर्मों में त्रैवर्णिकों का ही अधिकार है । स्त्री और
शद्रों का नहीं है। शरणागति सर्वजनसुलभ है। ५-फलनियम-विशिष्ट वैदिक कर्म का विशिष्ट फल ही होता है.। शरणागति
सर्वफलप्रदा है। इस प्रकार वैदिक धर्म में जो कमियाँ हैं उनकी पूर्ति शरणागति करती है। यही कारण है शरणागति अन्य मोक्ष के उपायों (कर्म, ज्ञान, भक्ति) की अपेक्षा कहीं उत्कृष्ट हैं
सत्कर्मनिरताः शुद्धाः सांख्ययोगविदस्तथा।
नार्हन्ति शरणस्थस्य कला कौटिलभीमपि ॥२ इस प्रकार से हम देखते हैं कि इन वैष्णव तन्त्रों में अन्य भारतीय शास्त्रीय परम्पराओं के विरुद्ध सामाजिक समता पर अधिक बल दिया गया है। यह सत्य है कि विषमता का निर्मल ये तन्त्र नहीं कर पाये हैं, तथापि समता को दृष्टि में रखकर विषमता की परिधि को, विषमता के क्षेत्र को बहुत सीमित कर दिया है। यह स्वाभाविक भी था। विषमता की इतनी शक्तिशाली धारा के विरुद्ध कुछ कहने का अर्थ था स्वयं अप्रामाणिक, प्रभावहीन सिद्ध हो जाना। अतः यदि तत्कालीन समय के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो सामाजिक समता के लिए वैष्णव तन्त्रों ने बहुत किया। १. निक्षेपरक्षा, पृष्ठ ३६ उदाहृत;
२. लक्ष्मीतन्त्र, १७१६३ ।
परिसंवाद-२
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