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भट्टजदीक्षित इस पर टिप्पणी करते हैं
किञ्च-स्वधर्मत्यागेन शूद्रधर्मरतानां द्विजानामपि पतितानामनेनाधिकारः । " अर्थात् ब्राह्मण भी पाञ्चरात्र मार्ग का अवलम्बन लेता है तो वह भी पतित हो जाता है । इस कथन को प्रमाणित करने के लिए वह ब्रह्माण्डपुराण के इस वचन को उदाहृत करते हैं—
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
तप्तमुद्रा ह्यन्त्यजाय हरिणा निर्मिता पुरा । भूदेवस्तप्तमुद्रा तु चिह्नं कृत्वा विमूढधीः ॥ ३ इह जन्मनि शूद्रः स्यात् प्रेत्य श्वा च भविष्यति ॥ 3
अर्थात् पाञ्चरात्र मार्ग का अवलम्बन होने वाला ब्राह्मण इस जन्म में शुद्र होता है और मर कर कुत्ता होता है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पाञ्चरात्र आगमों पर वेदविरोधी होने का सुनियो - जित आरोप लगाया जाता रहा है। उसका एक प्रमुख कारण इसके द्वार का मानवमात्र के लिए उद्घाटित होना है जिसमें स्त्री और शूद्र सम्मिलित हैं। पाञ्चरात्र आगमों में शूद्रों और स्त्रियों की स्थिति
पाञ्चरात्र आगम तान्त्रिक दीक्षा में त्रैवणिकों के साथ ही साथ स्त्री और शूद्रों को भी स्थान देते हैं । दीक्षायोग्य शिष्य के लक्षण बतलाते हुए लक्ष्मीतन्त्र में कहा गया है—
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शिष्यश्च तादृशो ज्ञेयः सर्वलक्षणलक्षितः । कुलीनं च तथा प्राज्ञं शास्त्रार्थनिरते सदा । ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं वा भगवत्परम् ॥ इदृग्लक्षणसंयुक्तं शिष्यमार्जवसंयुतम् । वर्णधर्मक्रियोपेतां नारीं वा सद्विवेकिनीम् ॥ विद्यादनुमते पत्युरनन्यां पतिमानिनीम् । एवं लक्षणकं शिष्यमाचार्यो भगवन्मयः ॥ ज्ञापयेद् विधिवन्मन्त्रान् गुरूदृष्टया समीक्ष्य तु
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स्पष्ट है कि यहाँ तान्त्रिक मन्त्र ग्रहण करने में स्त्री और शूद्रों के अधिकार का
उल्लेख है । इसी सन्दर्भ में परमसंहिता का निम्न उद्धरण द्रष्टव्य है
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या दीक्षायोग्यास्त्रयः स्मृताः । जातिशीलगुणोपेताः शूद्राश्च स्त्रिय एव च ॥"
१. पद्यपुराण | ४. लक्ष्मीतन्त्र, २१.३७-४१ ।
परिसंवाद - २
२. तन्त्राधिकारिनिर्णयः ।
३. ब्रह्माण्डपुराण, १० ।
५. परमसंहिता, ७.२४ ॥
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