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वैष्णवतन्त्रों के सन्दर्भ में समता के स्वर
___ डॉ० अशोककुमार कालिया भारतीय शास्त्रों में विविध प्रकार के धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है जो कहीं-कहीं एक दूसरे के पूरक हैं और कहीं-कहीं एक दूसरे के विरोधी भी। प्रत्येक शास्त्र किसी न किसी विशेष सिद्धान्त की स्थापना करता हुआ दिखायी देता है। ऐसी स्थिति में प्रायः यह कह सकना सम्भव नहीं होता है कि किसी एक विषय पर भारतीय शास्त्रों का समवेत रूप से प्रतिपाद्य मत क्या है ? हाँ, स्वर की या तात्पर्य की चर्चा अवश्य की जा सकती है। यह बात समता के प्रश्न को लेकर और अधिक स्पष्ट रूप से सामने आती है।
विषमता तो सृष्टि का स्वभाव है। अतः विषमता से पूर्णतया बचा नहीं जा सकता। समता का प्रश्न सामाजिक क्षेत्र में ही उठाया जा सकता है। विषमता प्रकृति की देन है और समता मानव समाज की सुन्दर कल्पना । इस सृष्टि में, वैषम्य के साम्राज्य में प्रबुद्ध मनुष्य समता के सिद्धान्तों को, समता के मूल्यों को, समता के तत्त्वों को ढूंढ़ कर स्थापित करना चाहता है, और यही है मनुष्य की सामर्थ्य-सीमा।
अब देखना यह है कि इस विषय में भारतीय शास्त्रों का क्या दृष्टिकोण रहा है। भारतीय समाज का एक प्रमुख आधार स्तम्भ वर्णव्यवस्था है । वर्णव्यवस्था की कल्पना भारतीय शास्त्रों की अत्यन्त मौलिक कल्पना है । यह कल्पना वैज्ञानिक अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से भारतीय शास्त्रकारों की सर्जनात्मक दार्शनिक मनीषा और प्रतिभा का अनुपम निदर्शन है, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु जिस दृष्टि को लेकर यह व्यवस्था आविर्भूत हुई, कालक्रम से वह दृष्टि व्यवस्था के साथ अधिक समय तक चल नहीं पायी। प्रत्युत यह कहना अतिरञ्जित सम्भवतः न हो कि बाद के शास्त्रकार उस दृष्टि से अपरिचित थे। सामाजिक व्यवस्था अथवा लोकव्यवस्था के लिए मानव समाज को उसकी सहज शारीरिक और मानसिक शक्तियों के आधार पर चार वर्णों में विभाजित करने की कल्पना आरम्भिक भारतीय शास्त्रकारों ने की । इस कल्पना की दृष्टि में लोक महत्त्वपूर्ण था, समाज महत्त्वपूर्ण था, अतः उस लोक और समाज के लिए प्रवृत्त हुई यह व्यवस्था महत्त्वपूर्ण थी, यही साध्य थी। किसी एक वर्ण की उच्चता अथवा नीचता का प्रतिपादन इसका प्रयोजन नहीं था। यह तो वर्णव्यवस्था के प्रतिष्ठापक शास्त्रकारों की बात है। यहाँ तक विषमता का कोई प्रश्न नहीं है, अतः
परिसंवाद-२
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