________________
काश्मीर के अद्वैत शैवतन्त्रों में सामाजिक समता
२६९
(विमतिपदमङ्ग सर्व मम चैतन्यात्मनः शरीरमिदम् । शून्यपदादीलावधि दृश्यत्वात् पिण्डवत् सिद्धम् ॥)
(विरूपाक्ष-पंचाशिका २) ब्रह्माण्ड और पिण्ड के समीकरण-अण्डपिण्डरुभयोरैकरूप्यमाम्नायेषु प्रसिद्धम् । (महार्थमञ्जरी, वाराणसी, पृ० ८); समग्रतामूलक साधना के अन्तर्गत भक्ति और ज्ञान के एकीकरण आगमों के अङ्गचतुष्ट्य-ज्ञान, योग, क्रिया, चर्या-द्वारा दर्शन, धर्म, आचार और साधना के समंजसीकरण; कूटस्थता और परिणामिता की भिन्नध्रुवीय धारणाओं के विमर्श या स्पन्द में समन्वयन; जागतिक विकास की शाब्दिक और आर्थिक धारा के परस्परान्वयन; और विविधता में अतहित एकता के प्रत्यय के बोधन; परमशिव और योगी के समीकरण आदि के द्वारा पदार्थगत विरोधों का परिहार करके उसी समग्रता दृष्टि का पल्लवन हुआ है। इन सबका फल यह होता है कि मोक्ष और जीवन क्रमशः स्वातन्त्र्य एवं बन्धन के प्रतीक न होकर जीव की आध्यात्मिक चेतना के पूर्ण और अपूर्ण विकास के प्रतीक बन जाते हैं; पाप और पुण्य केवल दृष्टिभेदमात्र रह जाते हैं(यः पापपुण्यहेतुत्वेन मम पूर्व प्रसिद्धः नीलसुखादिभावः स एव मोक्षसाधनमिति ।)
(भास्करी, भाग १, पृ० ४०) ___ और भोग एवं योग अथवा मोक्ष एक दूसरे के विरोधी न रहकर पूरक बन जाते हैं (भोगमोक्षसामरस्यात्मा मोक्षः)।' जो इनमें गुणात्मक भेद पाती है उसे ज्ञान की 'विवेकमूला' और इससे भिन्न दृष्टि को 'सामरस्यमूला' कह सकते हैं । ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में इसका प्रभाव ज्ञान की अध्यवसानमूला (इतरनिषेधपूर्वक निश्चयन) और अनुसंधानमूला (इतरग्रहणपूर्वक ज्ञान) प्रक्रियाओं में क्रमशः मिलता है।
इस दृष्टि से शिवदृष्टि में समता के प्रत्यय का जो विकास हुआ है वह समता के सामाजिक आयामों और सम्भावनाओं को पुष्ट आधार प्रदान करता है । शिवदृष्टि के अनुसार जिसे हम कुत्सित कहते हैं वह भी परमशक्ति का ही रूप-प्रसार मात्र है अतः उसकी निन्दा अनुचित है
१. गीता ७.११ पर अपने व्याख्यान में अभिनवगुप्त इसका उद्घोष बड़े दर्प के साथ करते
हैं—‘एवं व्याख्यानं त्यक्त्वा ये--परस्परानुपघातकं त्रिवर्ग सेवेत-इत्याशयेन व्याचक्षते,
ते सम्प्रदाय-क्रममजानाना भगवद्रहस्यं च व्याचक्षाणा नमस्कार्या एव ।' २. देखिए, लेखक का 'तांत्रिक दर्शन : प्रकृति और सांस्कृतिक संदर्भ' शीर्षक लेख, परिषद्
पत्रिका, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, १८-२, पृ० ३८
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org