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काश्मीर के अद्वैत शैवतन्त्रों में सामाजिक समता
२६५ विकृतियों का परिहार होता रहे और समाज का प्रातिस्विक निर्बन्ध प्रवाह अखण्ड चलता रहे । इसका मूल कारण यह था कि जीवन को उसकी सम्पूर्ण विविधता और वैचित्र्य में स्वीकार करने की प्रवृत्ति। इसे हम जीवन-स्वीकरण दृष्टि (Life affirmii.g attitucle) कह सकते हैं। पर यह विरोधाभास ही कहा जायगा कि मोक्ष जिसमें वर्णाश्रम व्यवस्था के सिरजनहारों में जीवित व्यक्तित्व के सम्पूर्ण और चरम उन्मेष की पराकाष्ठा मानी थी, अपने समाजोत्तीर्ण और आपाततः वैयक्तिक आग्रहों के कारण पूरे जीवन की कीमत पर, न कि जीवन की गतिशीलता के सहज परिपाक के रूप में, दर्शन में समादत हुआ और आस्तिक दर्शनों में मोक्ष के जीवन-विरोधी या जीवन-निषेधी रूप का वरण हुआ। सामाजिक सन्दर्भ में अभाव में जीवन का चूंकि कोई अर्थ नहीं, अतः सामाजिक सन्दर्भ अपने आप कटता गया।
___ इस सामाजिक सन्दर्भ को फिर से प्रतिष्ठित किया नास्तिक दर्शन ने (नास्तिक शब्द यहाँ व्यापक सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है-आस्तिकेतर के अर्थ में केवल श्रमण या जिन परम्परा के अर्थ में नहीं) मोक्ष को जीवन से जोड़कर। मोक्ष को जीवन की ही व्यापक प्रक्रिया का पार्यन्तिक अवयव या अवस्था मानकर । अतः जीवन-निषेध की आन्तरालिक दृष्टि जीवन-अंगीकरण की दृष्टि में फिर से कुछ क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हुई। जीवन-अंगीकरण के इस पुनरभियान से हम फिर सामाजिकता से जुड़े और समता की समस्या को एक सन्दर्भ प्राप्त हुआ। पर सामाजिकता से जोड़ की यह प्रक्रिया कई रूपों में चरितार्थ हुई, और कई कठिनाइयाँ भी सामने आईं। श्रमण और जैन परम्परा में जीवन निषेध और जीवन-अङ्गीकरण का यह विरोधाभास खुलकर सामने आया। सामाजिक स्तर पर समता, परम करुणा और संघीय जीवन के न केवल उपदिष्ट वरन् व्यवहृत आदर्शों के बाद भी मोक्ष का स्वरूप मूलतः जीवन-निषेधात्मक ही रहा और परम कारुणिक तथागत के निर्वाण और अभिज्ञान शाकुन्तल के 'नेत्रनिर्वाण' में प्रयुक्त निर्वाण का अन्तर गहराता ही गया। एक तरह से यह वर्णाश्रम व्यवस्था के चरम मूल्य के स्वीकार के साथ उसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया या आधार का निषेध था। तन्त्र परम्परा में जीवन का अङ्गीकरण ज्यादा सार्थक स्तर पर हुआ। जीवन और मोक्ष के तथाकथित द्वैत का परिहार करते हुए यह प्रयास, साफ चेतन स्तर पर, किया गया कि मोक्ष को जीवन की चरम परिणति सहज और स्वाभाविकमाना जाए। पर कहीं-कहीं पर इस ज्वार का उन्मेष आपाततः समाज विरोधी रूप में हुआ, अतः समाज में व्यापक स्तर पर इनकी प्रतिष्ठा में अक्सर बाधाएँ आती रहीं। भागवत, भक्त और सन्त आन्दोलनों की तमाम मिली-जुली परम्पराओं में भी मनुष्य की आस्थाओं को एक आशामय उपलब्धिमान् आलम्बन देने की चेष्टा की गयी और
परिसंचार-२
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