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भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता
अथवा विषमता ?
____डॉ हर्षनारायण भारतीय दर्शन भारतीय धर्मरूपी अवयवी का प्रायः अवयव-विशेष मात्र है, धर्म से व्यतिरिक्त कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं । अतः लोकयात्रा, लोकव्यवहार के विषय में दर्शन प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में धर्म की व्यवस्था को मान कर चलता है, धर्म के अनुवदन के अतिरिक्त अपनी ओर से विशेष कुछ नहीं कहता। और तो और, जिसे चार्वाक अथवा लोकायतदर्शन कहा जाता है वह भी लोकयात्रा का नियमन, कव्याकर्तव्य का व्यवस्थापन, नहीं करता, जिससे उसे जयन्तभट्ट का यह उपालम्भ सुनना पड़ा है
न हि लोकायते किञ्चित् कर्तव्यमुपदिश्यते ।
वैतण्डिककथैवासौ, न पुनः कश्चिदागमः॥' अर्थात् लोकायत में कर्तव्याकर्तव्य का विधान नहीं पाया जाता, अतः वह आगम नहीं प्रत्युत वितण्डावाद मात्र है। जयन्त बौद्धों पर भी इसी प्रकार का उपालम्भ करता है--'बौद्धादयोऽपि दुरात्मानो वेदप्रामाण्यनियमिता एव चण्डालादिस्पर्श परिहरन्ति ।'२ अर्थात् बौद्ध आदि को भी स्पृश्यास्पृश्य-निर्णयार्थ वेद का ही आश्रय लेना पड़ता है, इनके पास तत्सम्बन्धी अपना कोई विधान नहीं । वाचस्पतिमिश्र इसी स्वर में लिखते हैं-'न चैतेषामागमा वर्णाश्रमाचारव्यवस्थाहेतवः; नो खलु निषेकाद्याः क्रियाः श्मशानान्ताः प्रजानामेते विदधति । न हि प्रमाणीकृतबौद्धागमा अपि लोकयात्रायां श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणनिरपेक्षागममात्रेण प्रवर्तन्ते; अपि तु तेऽपि "सांवृतमेतद्" इति ब्रुवाणा लोकयात्रायां श्रुत्यादीन्येवानुसरन्ति ।' अर्थात् बौद्धागम में लोकव्यवस्था, अन्त्येष्टि आदि क्रिया के सम्बन्ध में कोई विधान नहीं, अतः उन्हें भी लोकयात्रा, लोकसंवृति, का निर्वाह वेदशास्त्र के आधार पर ही करने को बाध्य होना पड़ता है । अतः सामाजिक समता के सन्दर्भ में भारतीय दर्शन के आकलनार्थ दर्शनसहकृत आगम अथवा धर्म-व्यवस्था का विश्लेषण अपेक्षित है।
१. न्यायमञ्जरी, प्रमाण-प्रकरण, पृ० २४७; ३. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका २।११६८, पृ० ४३२ ।
२. तत्रैव, पृ० २४३ ।
परिसंवाद-२
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