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प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता
२३५ बाद के साहित्य में भी एक विवाह आदर्श माना गया है। स्वयं ऋग्वेद में भी बहुत सी स्त्रियों को रखना महान् कष्टकारक बतलाया गया है।
जिस प्रकार एक पुरुष एक ही समय में एक से अधिक पत्नियों को रख सकता था, उनसे अपना मनोरंजन कर सकता था, उसी प्रकार स्त्रियों को एक साथ एक से अधिक पति रखने का अधिकार प्राप्त न था। तैत्तिरीय संहिता' एवं ऐतरेय ब्राह्मण के अध्ययन से यह बात सुस्पष्ट विदित होती है कि उनके प्रणयन-काल तक भारतवसुन्धरा पर कहीं भी बहुभर्तृकता का पता नहीं था । एक मात्र द्रोपदी के उदाहरण को छोड़कर समग्र संस्कृत साहित्य में एक भी ऐसा स्थल नहीं है, जिससे बहुभर्तृकता का पता चल सके अथवा समर्थन हो । महाभारत में यह स्पष्ट लिखा है कि जब लोगों को इस बात का पता चला कि युधिष्ठिर ने द्रौपदी को सभों भाइयों की पत्नी मान लिया है, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उनके लिये यह एकदम अस्वाभाविक तथा विधान-विहीन बात थी। जब युधिष्ठिर को यह समझाने का प्रबल प्रयास किया गया कि इस तरह की बात अव्यावहारिक तथा परम्परा विरुद्ध है, तब उन्होंने उत्तर दिया-इस तरह का कार्य पहले भी होता था। अपने पक्ष के समर्थन के लिये उन्होंने दो उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि-'जटिला गौतमी' सप्तर्षियों की पत्नी थी तथा सभी दश प्राचेतस भाई, वाी के पति थे। किन्तु इस प्रकार के उदाहरण महाभारत के उक्त स्थल को छोड़कर और कहीं नहीं मिलते । अतः इनकी ऐतिहासिकता को असंदिग्ध नहीं माना जा सकता । तत्कालीन समाज बहुभर्तृकता की प्रथा को निन्दनीय मानता था । सभा पर्व में कर्ण ने द्रौपदी को वेश्या कहा है, क्योंकि वह एक साथ पाँच पाण्डवों की पत्नी थी। अन्तर्जातीय विवाह
अन्तर्जातीय विवाह सूत्र ग्रन्थों के काल तक वैध प्रतीत होते हैं । वसिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार शूद्र स्त्री के साथ उच्चवर्ण के व्यक्ति विवाह कर सकते थे। किन्तु इस तरह का विवाह धार्मिक कृत्य के लिये नहीं अपितु आमोद-प्रमोद के लिये, सांसारिक आनन्द के लिये हुआ करता था। धार्मिक कृत्य का सम्पादन तो उच्चवर्ण का व्यक्ति सवर्णा स्त्री के साथ ही करने का अधिकारी था। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि सूत्रकाल या सूत्रकाल से पूर्व भी अन्तर्जातीय विवाह स्वाभाविक एवं
१. तैत्तिरीय संहिता ६।६।४।३, ६।५।२।४ । ३. विष्णुधर्मसूत्र २६।१-४ ।
२. ऐतरेय ब्राह्मण १२।११। ४. वसिष्ठधर्मसूत्र १८।१८ ।
परिसंवाद-२
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