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'भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
काल में 'मानव-स्वातन्त्र्य' अथवा ' मानव अधिकार' नाम की कोई वस्तु न थी, अथवा उसका कोई खास मूल्य न था, क्योंकि उस समय शासन धर्म के आधार पर, मजहब के आधार पर सञ्चालित होता था । किन्तु यह बात निराधार है। शासन के सन्दर्भ में धर्म का अर्थ मजहब या एक वर्ग विशेष की मान्यता समझना भारी भूल होगी ।
प्राचीन काल के साहित्य को देखने से यह विदित होता है कि उस समय शासन आदि सार्वजनीन कार्यों में प्रयुक्त 'धर्म' किसी सम्प्रदाय या मत का द्योतक नहीं था, प्रत्युत यह जीवन का एक ढंग या आचरण संहिता रहा, जो समाज के अङ्ग तथा व्यक्ति के रूप में मानव के कार्यों को व्यवस्थित करता हुआ समाज में मर्यादा की स्थापना करता था । इसको और सरल ढंग से समझाने के लिए कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में धर्म, कानून, विधि, मर्यादा, दण्ड तथा ला समानार्थक शब्द थे । 'दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः' (मनु० ७ १८) दण्ड को ही विद्वानों ने धर्म की संज्ञा प्रदान की है ।' जब हम धर्म एवं दण्ड या ला को समानार्थक मानते हैं, सही ढंग से लग जाती है कि
तभी यह बात भी
अर्थात् सत्ययुग में धर्म कुछ दूसरे ही ढंग का रहा । त्रेता और द्वापर में इसके कुछ और ही रूप रहे तथा इस कलियुग में अन्य प्रकार के ही धर्म की व्यवस्था है । युग के अनुरूप धर्मं के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है ।
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे ।
अन्ये कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः ॥ मनु १।८५
इस बात का समर्थन महाभारत तथा बौधायनधर्मसूत्र में भी होता है । इनके अनुसार धर्म तीन प्रकार का होता है - ( १ ) वेदोक्त, (२) धर्मशास्त्रों के द्वारा कथित तथा (३) परम्परा या शिष्ट जनों से प्राप्त । धर्म के ये तीनों ही स्रोत जब संगम को प्राप्त होते थे तभी महाधर्म रूप प्रयाग के स्वरूप का निर्माण होता था, जो सभी वर्ग के व्यक्तियों, यहाँ तक कि प्राणिमात्र के लिये भी शिरोधार्य हुआ करता था ।
१. और देखिये मनु० ७ १७, महाभारत १५ । १० ।
२. वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोऽपरः ।
शिष्टाचीर्णः परः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनातनाः || अनुशासनपर्व १४५।६५
त्रिविधं धर्मलक्षणम् । वनपर्व २०७।८३ । उपदिष्टो धर्मः प्रतिवेदम् । "स्मार्तो द्वितीयः । तृतीयः शिष्टागमः । बौधायनधर्मसूत्र १।१।१-४ ॥
परिसंवादव-२
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