________________
२२८
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं . इस परिषद् के निर्णयों को, इसके द्वारा पारित विधानों को देश में प्रचारित किया जाता था और राष्ट्र के प्रत्येक नागरिकों को इससे परिचित कराया जाता था।'
____ मन्त्रिपरिषद् की सदस्य-संख्या के विषय में प्राचीन ग्रन्थों में ऐकमत्य नहीं है। किन्तु प्रायः सभी आचार्यों ने इसे सात से दश के भीतर ही माना है। व्यवहार (न्याय पद्धति)
प्राचीन काल में निष्पक्ष न्याय कर अपराधी को दण्डित करना राजा का प्रमुख कार्य माना जाता था। रामायण, महाभारत, सारी स्मृतियाँ एवं अर्थशास्त्र आदि न्याय-शासन को राजा का प्रधान कर्तव्य बतलाते हैं। राजा की कचहरी या न्यायालय को धर्मासन, धर्मस्थान या धर्माधिकरण कहा जाता था। मृच्छकटिक में न्यायालय के लिए अधिकरण-मण्डप तथा प्रधान न्यायाधीश के लिए अधिकरणिक कहा गया है। न्यायालय का अत्यन्त विकसित एवं आधुनिक रूप मृच्छकटिक में विस्तृत रूप से देखा जा सकता है। स्मृतियाँ, तथा काव्यों आदि के अवलोकन से यह बात प्रतीत होती है कि प्राचीन समय में दो प्रकार के न्यायालय होते थे(१) राजा का न्यायालय तथा (२) मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय । राजा सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। मुख्य न्यायाधीश के न्यायालय का निर्णय राजा की अनुमति की प्राप्ति के लिए भेजा जाता था। किन्तु राजा के न्यायालय में भी, राजा की सहायता के लिए, धर्मस्थ (विधि-वेत्ता) रहा करते थे, जो राजा को सही निर्णय लेने में सहायक होते थे।"
न्यायाधीशों को स्मृतियों के अनुसार ही प्रायः निर्णय करना पड़ता था। छोटी जाति के व्यक्ति (जैसे चर्मकार आदि) भी न्याय के समान रूप से भागीदार थे। न्याय-व्यवस्था के समय सभी जातियों के जनों के कुल, जाति तथा देश आदि के धर्मों पर दृष्टि रखी जाती थी। (मनु० ८१४१-४६) । उस काल में न्याय सस्ता तथा सर्वजनसुलभ था । न्याय के समक्ष छोटे-बड़े का विचार नहीं किया जाता था।
१. ततः सम्प्रेषयेद् राष्ट्र राष्ट्रियाय च दर्शयेत् ।
अनेन व्यवहारेण द्रष्टव्यास्ते प्रजाः सदा ॥ शान्ति० ८५।१२ । २. देखिये—मृच्छकटिक, अंक ९ । ३. देखिये-याज्ञवल्क्यस्मृति तथा नारदस्मृति । ४. देखिये-मृच्छकटिक, पृष्ठ ६१७, डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी के द्वारा सम्पादित संस्करण । ५. रघुवंश-१७।३९ ।
६. मनुस्मृति ८१४१ ।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org