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प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता
२२५ से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्म बतलाया गया है, उसका मैं निःशङ्क होकर पालन करूँगा। कभी स्वच्छन्द नहीं होऊँगा। ब्राह्मण मेरे लिये अदण्डनीय होंगे तथा मैं सम्पूर्ण जगत् को वर्णसङ्करता और धर्मसङ्करता से बचाऊँगा' आदि आदि ।
(२) प्राचीन ग्रन्थों में राजा के निर्वाचन के अतिरिक्त एक अन्य सिद्धान्त भी मिलता है, जिसके अनुसार राजा के पद, उसकी महत्ता और उसके व्यापार को द्योतित करने के लिये उसमें देवों के अंश होने की कल्पना की गई है । महाभारत, सम्पूर्ण धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र एवं पुराण इसी सिद्धान्त का प्रमुख रूप से समर्थन करते हैं। इसी के प्रचार तथा प्रसार के लिये डिण्डिम-घोष करते हैं। राजा दैवी अधिकार से सम्पन्न होता था, इसकी प्रथम झाँकी ऋग्वेद में देखी जा सकती है। ऋग्वेद (४।४२) में 'पुरुकुत्स' के पुत्र राजा 'त्रसद्दस्यु' का वर्णन है। वह बड़े आत्मगौरव के साथ उद्घोषित करता है-'मैं इन्द्र एवं वरुण हूँ, मैं विशाल एवं गम्भीर स्वर्ग तथा पृथ्वी हूँ।' अथर्ववेद में आया है—'हे राजन्, तुम्हें सभी लोग चाहें, तुम इन्द्र के समान विश्व में सुस्थिर रहो। राज्य तुम्हारे द्वारा धारण किया जाता रहे। इसी प्रकार की अभिव्यक्ति शतपथब्राह्मण में भी मिलती है.-'राजन्य प्रजापति का है, वह एकाकी है, किन्तु बहुतों पर शासन करता है ।'3 यहाँ राजा प्रजापति के प्रतिनिधि के रूप में वर्णित है । महाभारत के शान्तिपर्व में राजा के दैविक अंशवाली बात बहुधा वर्णित है। मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, काव्य एवं समूचे पुराण राजा में देवत्व की कल्पना वाली बात से भरे पड़े हैं।" राजा होने के अधिकारी
राजा किसे होना चाहिये ? इस विषय पर हमारे पुरातन ग्रन्थकार एकमत नहीं हैं। मनु के अनुसार क्षत्रिय ही राज्य के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी माना गया है। उन्होंने चारो वर्णों के कर्मों का विभाजन करते हुए अपने विश्व-विश्रुत ग्रन्थ मनुस्मृति में कहा है कि-'प्रजा-रक्षण, दान अर्थात् वितरण, यज्ञानुष्ठान, वेदाध्ययन तथा अपनी ओर आकृष्ट कर विवेक को विनष्ट करने वाली वस्तुओं से विरक्ति'-संक्षेप में ये ही क्षत्रिय
१. प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा।
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत् । यश्चात्र धर्मो नित्युक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः ।
तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन ॥ शान्ति० ५९।१०६-१०७ २. देखिये-६।८७।१-२ ।
३. देखिये-५।१।५।१४ । ४. देखिये-मनु ५।९६, ७।५, ७।८ । तथा रघुवंश २७५ ।
परिसंवाद २
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