________________
प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता
२२३ एक बार चयन हो जाने का यह अर्थ कदापि न था कि राजा स्वेच्छाचारिता करे, समाज एवं उसके नियमों की अवहेलना करे, धर्म के विरुद्ध आचरण करे। राजा को नियन्त्रित करने की बागडोर जनता के हाथों में थी। जनता ही राजा का निर्माता एवं भाग्यविधाता थी। महाभारत में राजा वेन की कथा वर्णित है। वेन
अत्यन्त प्रतापी और विशाल साम्राज्य का अधिपति था। विशाल साम्राज्य का नियन्ता वेन, अपने विपुल ऐश्वर्य को देखकर अपने को ही नियन्त्रित न कर सका। उसने स्वेच्छाचारिता आरम्भ की। फलतः लोगों ने उसका वध कर डाला। शान्तिपर्व में कहा गया है कि अधार्मिक, स्वेच्छाचारी राजा का वध कर उसके परिवार को आपत्ति के गर्त में झोंक देना चाहिए। तैत्तिरीयसंहिता एवं शतपथब्राह्मण के काल में राज्य पाकर मनमानी करने वाले राजा को देश की नागरिकता से वंचित कर दिया जाता था।
भारत के सुदूर अतीत की झाँकी देखने से यह पता चलता है कि उस समय राज-पद सहज एवं बहुत गौरवास्पद न था। राज-पद के साथ सुख की अपेक्षा दुःख का, शान्ति की अपेक्षा अशान्ति का एवं पुण्य की अपेक्षा पाप का सम्बन्ध अधिक दढ़ था । यही कारण है कि बुद्धिमान् एवं सच्चरित्र जन इससे दूर रहना चाहते थे । शासक होने की अपेक्षा शासित होना उन्हें अधिक पसन्द था । वे राज-पद से दूर रहना चाहते थे। उस समय राजा का प्रधान कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना ही माना जाता था। प्रजा वर्ग अपनी रक्षा के लिये ही अपनी आय का षष्ठांश राजा को वेतन के रूप में दिया करता था। मार्कण्डेयपुराण (१३०।३३-३४) में राजा 'मरुत्त' की मातामही ने उपदेश देते समय उसे समझाया है कि राजा का शरीर आमोद-प्रमोद के लिये नहीं बना है, प्रत्युत् वह कर्तव्य पालन करने तथा पृथ्वी की रक्षा करने के प्रयत्न में कष्ट सहने के लिये है। राजा पर धर्म का नियन्त्रण सार्वकालिक था। क्रोध के वशीभूत रहकर मर्यादा का उल्लंघन करने वाले राजा मृत्यु के ग्रास बना दिये जाते थे।
१. महाभारत, शान्तिपर्व, ५९।९३-९५ । भागवत ४।१४ तथा मनु० ७।४१ । २. शान्ति० ९२।९। ३. तैत्तिरीय० २।३।१ तथा शतपथब्राह्मण १२।९।३।१-३ । ४. देखिये-महाभारत, शान्तिपर्व ५९ अ०। ५. शान्तिपर्व ६७।२१-२२ । ६. बौधायनगृह्यसूत्र १।१०।१, शुक्रनीति १।१८८ तथा शान्ति० ७१।१०। ७. प्रायशश्च कोपवशा राजानः प्रकृतिकोपैहताः श्रूयन्ते । अर्थशास्त्र ८१३ ।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org