________________
समकालीन भारत में व्यष्टि और समष्टि
के सम्बन्धों की दिशा
प्रो० कैलाशनाथ शर्मा भारत की उत्तरोत्तर वर्धमान सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत विश्वविद्यालय के बौद्ध-दर्शन विभाग द्वारा व्यक्ति और समष्टि के सम्बन्धों पर आयोजित यह गोष्ठी अत्यन्त सामयिक एवं समीचीन है। अतः इस गोष्ठी के आयोजक धन्यवाद के पात्र हैं। यद्यपि व्यक्ति एवं समाज के सम्बन्धों पर दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की दृष्टि से विचार किया जा सकता है तथापि मैं केवल व्यावहारिक पक्ष पर ही अपने विचार प्रस्तुत करूँगा। मुझे विश्वास है इस गोष्ठी में भाग लेने वाले अन्य विद्वान, दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के पक्षों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन प्रस्तुत करेंगे।
भारत के आर्थिक विकास के लिए पञ्चवर्षीय योजनायें पाँचवें दशक से चल रही हैं । इन योजनाओं के मूल में दो धारणायें हैं । पहली धारणा यह है कि जिस अनुपात में देश की अर्थ-व्यवस्था में आर्थिक विनियोग बढ़ेगा, लगभग उसी अनुपात में आर्थिक विकास होगा। दूसरी धारणा यह है कि आर्थिक विनियोग एवं विकास का माध्यम सामाजिक संस्थायें एवं संगठन होंगे। यदि संस्थाओं एवं संगठनों के वर्तमान प्रकार सन्तोषजनक नहीं हैं तो इन्हें विदेशों से आयात किया जा सकता है। पश्चिमी देश आर्थिक दृष्टि से सफल माने जाते हैं । अतः यह मान लिया जाता है कि उन देशों की संस्थायें और संगठनों के प्रकार आर्थिक सफलता की कुञ्जी हैं और इसलिए विकासशील देशों में प्रायः इन संस्थाओं और संगठनों का आयात तेजी से हुआ है। जब ये संस्थायें और संगठन असफल होने लगते हैं तो कहा जाता है कि पूँजीवादी संस्थाओं
और संगठनों के बजाय साम्यवादी देशों (रूस एवं चीन आदि) की संस्थाओं और संगठनों का आयात होना चाहिए । कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि जापान भी आर्थिक दृष्टि से सफल देश है और एशिया का है, अतः जापान की संस्थाओं एवं संगठनों का आयात अधिक उपयोगी होगा। यदि कभी भारत की आर्थिक विकास सम्बन्धी संस्थाओं और संगठनों का इतिहास लिखा जाएगा तो इन सभी प्रक्रियाओं पर आधारित यहाँ संस्थाओं एवं संगठनों के विकास को चित्रित करना पड़ेगा।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org