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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
है, फिर निदान ज्ञान और चिकित्सा का शरण लिया जाय तो बीमारी हटेगी । इस प्रकार बुद्ध, धर्म और संघ के शरण के अलावा विपश्यना (प्रज्ञा) और कुशल कर्मों की शरण लेनी पड़ती है । जिससे अधिशील, अधिसमाधि और अधिप्रज्ञा के विकास से योगिचित्त फैलता है । आर्यदेव ने कहा हैं
धर्मं समासतो हिंसां वर्णयन्ति तथागताः ।
शून्यतामेव निर्वाणं केवलं तदिहोभयम् ॥ (चतु० २९८ )
(ख) चतुरार्यसत्य, दुःख, समुदय, निरोध और निरोधगामिनिप्रतिपद् विष - यक परमार्थ देशना की सम्यग्दृष्टि से सत्त्वों के वैयक्तिक लाभ के साथ-साथ सामाजिकहित प्रत्यक्षीभूत नहीं होता है । जैसा आत्मभाव या ममत्वदृष्टि अविद्या से आती है, यह दृष्टि कामावर, रूपावचर, अरूपावचर तथा मनुष्यलोक, देवलोक और ब्रह्मलोक में भी प्रत्यक्ष होती है । परन्तु अस्मिता के कारण अकुशल कर्मादि के प्रभाव से हिंसा विचिकित्सा या संशयादि लोभद्वेषमोहात्मक संवृत्ति चित्त में रागाग्नि की तरह दुःख दण्ड लाती है । इसलिए योगी होते हुए भी प्रतिसंधि तथा आवागमन के अधिकार में सत्त्व भ्रमण करता है । अतः अकुशलचित्त के कारण संसार में सत्त्व सदा ही वैयक्तिक लाभ उठाने की कोशिश करते हैं । फिर उस संकीर्ण आत्मभाव की नी से बाहर निकलने के लिए क्लेशवर्त्म, कर्मवर्त्म, विपाकवर्त्म और कामसुगति संसार वर्त्म के अलावा रूप-तृष्णा, अरूप- तृष्णा को रूपध्यान, अरूपध्यान के द्वारा हटाते हैं ।
(ग) १ – अत्थिदिन्नं, २ – अस्थि इंट्ठ, ३ – अत्थिहुतं, ४ -- अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, ५ - अत्थि माता, ६ - अत्थि पिता, ७ – अत्थि सत्ता औपपातिका, ८ – अत्थि अयं लोको, ९ -- अत्थि परलोको १० – अस्थि लोके समण ब्राह्मणा सम्माञ्ञता सम्मापटिपन्ना ये इमं च लोकं परंच लोकं सयं अभिज्ञा सच्चि - कत्वा पवेदेति । इन दश वस्तुओं के लिए सम्यकदृष्टि से व्यक्ति और समाज को देखा जाय तो बुद्धकालीन युग से अब तक बौद्ध धर्म के अनुशासन की समाजविज्ञानभित्ति की सार्वभौमिकता मिलती है । चतुःसत्य विषयक सम्यग्दृष्टि से आत्मभाव की अपनी ही अपनी पुष्टि मिलती है । परन्तु वह योगी आनापान तथा प्राणायामादि योग क्रिया के द्वारा अपने चित्त में मैत्री, करुणा, मुदिता उपेक्षादि चार समापत्ति में विराजित रहता है ।
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मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावना ब्रह्मविहार है । यह चित्तस्थिति बौद्ध योग के अलावा अन्य योगशास्त्रों में भी उल्लिखित है । जैसे :
परिसंवाद - २
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