________________
व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्धों की अवधारणा
१४५ सामान्य सामाजिक व्यवस्था के प्रति बुद्ध का क्या मन्तव्य था, उसका आकलन कूटदन्त सुत्त, महासुदस्सन सुत्त, अग्गझ सुत्त, सिंगालोवाद सुत्त, मज्झिम निकाय के मखादेव सुत्त, मधुर सुत्त, अस्सलायन सुत्त, वासेट सुत्त, समागम सुत्त के अध्ययन से किया जा सकता है। कुछ लोगों का यह कहना कि बुद्ध ने कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं दी है, निराधार है। यह ठीक है कि बुद्ध ने सामाजिक व्यवस्था के लिए मनुस्मृति जैसी किसी पुस्तक का प्रणयन नहीं किया, पर त्रिपिटक के उन-उन स्थलों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध किस प्रकार की समाज व्यवस्था को उत्तम मानते थे । दीघ निकाय तथा मज्झिम निकाय के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि उस समय जो सामाजिक व्यवस्था प्रचलित थी वह दोषपूर्ण थी। इसीलिए बुद्ध ने संघीय व्यवस्था कायम की जो आदर्श समाज व्यवस्था के रूप में व्यवस्थित हुई। यह समाज कभी भी एकजातीय ओर एकदेशीय नहीं रहा अपितु बहुजातीय एवं बहुदेशीय रहा और इसकी भावना सार्वजनोन कल्याण की रही।
इस प्रकार स्थविरवाद की दृष्टि से व्यक्ति का विकास पृथक्जन से लेकर आदर्श पुरुष सम्यक्सम्बुद्ध तक तथा सामाजिक विकास सामान्य समाज (उपासक, उपासिका संघ) से लेकर आदर्श समाज (भिक्षुणी संघ एवं भिक्षु संघ) तक माना जा सकता है।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org