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बौद्ध दृष्टि में व्यष्टि और समष्टि
यद्यपि महायान पिटकों में लोक हित को अधिक प्रधानता प्रदान की गयी है तथापि सामाजिक या व्यक्तिगत, तत्कालिक अहित को भी किसी समय-विशेष पर पुण्य या सुकर्म कहा गया है।
अपने में क्षणिकता एवं दुःख स्वभावता का साक्षात्कार करने वाले व्यक्ति में आसक्ति तथा अभिमान का क्षय होता है। यही दृष्टि प्राणीमात्र के उदय के साक्षात्कार की है जो प्राणिमात्र को दुःखों से छुटकारा दिलाने की करुणा देती है तथा सुख से संयोग और मैत्री भाव उत्पन्न कराने वाली है।
समस्त लौकिक ऐश्वर्य कर्म क्लेश के वशीभूत होने से दुःख स्वभावता के कारण परार्थ नहीं होते, वे निर्धारित क्षमता वाले हेतुओं के अनुगमन से परिवर्तनशील एवं क्षणिक हैं। स्व और पर से स्वतन्त्र सिद्ध नैरात्म्य ज्ञान सर्व-धर्म-परतन्त्र होने से प्रतीत्यसमुत्पन्न स्वभाव में होता है। प्रतीत्यसमुत्पाद मात्र में समस्त सामाजिक व्यवस्था संगत होती है, ऐसा जानकर समस्त दोषों के आधारभूत अज्ञानता मूलक राग-द्वेष सर्वथा हेय हो जाते हैं। इस प्रकार समस्त सुख का हेतु प्रज्ञा एवं जनकल्याण ही है।
भवन्त्वक्षयकोशाश्च यावद्गगनगञ्जवत् । निर्द्वन्दा निरूपायासाः सन्तु स्वाधीनवृत्तयः॥
(बोधिचर्यावतार परि० १०, श्लो० २८)
परिसंवाद-२
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