________________
बौद्ध दृष्टि में व्यष्टि और समष्टि
गेशे-येशेस थवख्यस परात्मसमतामादौ, भावयेदेवमादरात् ।
समदुःखसुखाः सर्वे पालनीया मयात्मवत् ॥ बौद्ध वाङ्मय के अनुसार चर्या एवं दर्शन के निम्नलिखित प्रकार हैं। मनुष्यों में पराये व्यक्तियों की अपेक्षा आत्म-स्नेह सहज रूप से उद्भूत होता है, यही कारण है कि मनुष्य सदा से स्वार्थ-सम्पन्नता के लिये लालायित रहे हैं । पर हिंसा सर्वथा त्याज्य है। किसी की भी शत्रुता, मित्रता एवं उदासीनता की पृथक्-पृथक् भावनाओं का उत्सर्ग कर सुख, दुःख एवं उपेक्षा जैसी विषमतामयी कुभावनाओं का उन्मूलन करने पर समस्त प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, द्वेष आदि भावना से रहित समताभाव से कल्याणकारी सुभावना की उत्पत्ति होती है।
कुछ कारणों तथा निर्धारित प्राणियों के प्रति अहिंसा भाव की उत्पत्ति मात्र अहिंसा का तात्पर्य नहीं है, बल्कि अपने तुल्य सुख की चाह, दुख का परिहार तथा सुख-दुःख की अनुभूति करने वाले प्राणि मात्र के लिए हिंसा हेय है; केवल मनुष्य जाति के प्रति ही नहीं है । इस प्रकार परार्थसिद्धि भी कुछ या एक पक्षीय कारणों से निश्चित समाज पर या निश्चित व्यक्तियों तक ही सीमित न होकर सुखेच्छु जीव के अन्तर्गत आने वाले समस्त प्राणियों की रक्षा एवं जीवन दोनों की अनिवार्यता में है । सर्वसत्त्व की हिताकांक्षा से देवदत्त जैसे एक व्यक्ति की, किसी विशेष समाज या देश की हिंसा से विरत होकर हित सम्पन्न करने पर भी समस्त कार्य लोक के कल्याण एवं परहित में ही अहिंसा की सिद्धि होती है ।
व्यक्ति अपने निजी सुख एवं सम्पन्नता के लिए, अन्यों को दुःख देना तो दूर, समाज के तात्कालिक सुख एवं स्थायी कल्याण हेतु जीवित रहता है और उचित समय पर अपना भी उत्सर्ग कर देता है। लोकहित की बलवती अभिलाषा से पुरुष अपने को शिक्षित, चरित्रवान एवं सक्षम करना चाहता है। परार्थ सम्पन्नता हेतु शिक्षित एवं सुशील व्यक्तित्व का होना नितान्त अपेक्षित है।
१. बोधिचर्यावतार ८१९० ।
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org