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व्यक्ति और समाज के प्रति महायान के दृष्टिकोण
आचार्य टी० छोगडुब्
सर्वविदित है कि सभी धर्म और दर्शन व्यक्ति और समाज के साथ सम्बद्ध रहते हैं। सभी धर्म-दर्शन समाज की व्यवस्था प्रदान करते हैं । पाश्चात्य समाज शास्त्रों तथा समाज विज्ञान का उद्देश्य केवल इसी जीवन की व्यवस्था करना होता है । पर भारतीय धर्म-दर्शन व्यक्ति तथा समाज को आध्यात्मिक व्यवस्था भी प्रदान करता है । बौद्ध दर्शन या धर्म में व्यक्ति तथा समाज की व्यवस्था तथा उनके कर्तव्य आदि सुस्पष्ट हैं ।
यदि हम पिछले इतिहासों का अवलोकन करें तो ज्ञात होगा कि बौद्ध धर्म समाज की किस परिस्थिति में प्रादुर्भूत हुआ है । बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद का दर्शन है, अतः समाज की कोई शाश्वत व्यवस्था नहीं देता है । यह दर्शन कर्मवाद दर्शन है, अतः व्यक्ति और समाज की उन्नति और ह्रास व्यक्ति तथा समाज के कर्मों पर आधृत है । यह दर्शन प्रतीत्यसमुत्पादवाद का दर्शन है, अतः व्यक्ति और समाज एक दूसरे पर आपेक्षित है ।
उपर्युक्त सिद्धान्तों के कारण वर्णव्यवस्था तथा विविध संस्कारों को बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया । बुद्ध ने संघ में सभी वर्गों तथा सभी जाति के लोगों को सम्मिलित किया है। महिलाओं को भी संघ में स्थान दिया गया है । भिक्षु संघ की प्रणाली एक 'समाजप्रधान - प्रजातान्त्रिक' प्रणाली है जिसमें व्यक्ति से अधिक समाज को प्रधानता दी गयी है ।
उत्पन्न हैं । अतः दूसरा कोई मार्ग
समाज के विविध दुःखों के निराकरण की खोज में किया । वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि व्यक्ति तथा समाज में जनित नहीं है, न ही अहेतुक हैं । अपितु वे अविद्या, तृष्णा से अविद्या तथा तृष्णा के उन्मूलन से दुःखों से मुक्ति हो सकती है । नहीं है । दुःखों से सभी पीड़ित हैं । सभी दुःखों से मुक्त होना चाहते हैं । दुःखों से मुक्ति सभी की हो सकती है। इसमें कोई जाति या वर्ण बाधक नहीं है । इसलिए समाज के प्रति बुद्ध का क्या दृष्टिकोण था, यह समझना कठिन नहीं है । समाज के प्रति बौद्ध दर्शन की अवधारणा क्या है, यह 'बहुजनसुखाय बहुजनहिताय' इत्यादि वाक्य से स्पष्ट हो जाता है ।
परिसंवाद - २
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बुद्ध ने समुचित विचार व्याप्त विविध दुःख ईश्वर
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