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बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में व्यष्टि एवं समष्टि
१९७ द्वारा ऐमा मत व्यक्त किया जाना सम्भवतः गलत नहीं होगा। किसी भी व्यक्तित्व' को समझने का एक प्रयास उसके अनेक जन्मों में प्रकट रूपों की समष्टि में विश्लेषण द्वारा हो सकता है तथा किया जाता है किन्तु समस्या तो यह है कि हम उस व्यष्टि को उसकी तथाकथित (उस प्रकार समझी हुई) समष्टि से कैसे जोड़ें ? जबकि एक जन्म का दूसरे जन्म से सम्बन्ध (परिणमन) भी हमारी साधारण बुद्धि के परे का विषय प्रतीत होता है। .
२-ऐसा हमारा सर्व सुलभ अनुभव है कि हम किसी भी व्यक्ति को किसी भी समय, बदलता हुआ किन्तु 'अमुक' करके जानते हैं और समय के अन्तर पर बदला हुआ किन्तु फिर भी 'वही' करके पहिचानते हैं। एक ही समय पर, किसी एक व्यक्ति को जानने वाले अनेक उससे परिचित उसे विभिन्न रूपों में जानते पहिचानते हैं। बहुत से व्यक्तियों के व्यक्तित्वों' का अभिनय मानो एक ही 'व्यक्ति' एक ही समसामयिक काल में तथा कालान्तर में करता है अथवा विभिन्न समयों पर और समसामयिक काल में प्रकट होने वाले विभिन्न व्यक्तियों की समष्टि को हम एक ही व्यक्तित्व की व्यष्टि में व्यक्त करते हैं। इस स्थिति का द्योतन कुछ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि एक व्यक्ति उन अनेक समान, भिन्न तथा विपरीत गुण दोषों की समष्टि है जिनके द्वारा वह अन्य व्यक्तियों से जाना जाता है । हाँ, उनमें से कोई भी गुण अथवा दोष ऐसा नहीं जो सदा, सर्वदा और सबके लिए एक जैसा ही विद्यमान रहता है । इसी स्थिति को पुद्गल नैरात्म्य करके जाना या समझा जाता है।
३-हम किसी व्यक्ति' को पहिचानते समय 'वह कैसा दिखाई देता है' ? 'कैसे दुःख-सुख का अनुभव करता है' ? 'कैसे देखता है' ? 'कैसे सोचता है ? और कैसे अन्य वस्तुओं एवं व्यक्तियों से प्रभावित होता है अथवा उन्हें प्रभावित करता है' ? की सहायता लेते हैं अर्थात् क्रमशः रूप, वेदना, संज्ञा, विज्ञान एवं संस्कार पाँच स्कन्धों की समष्टि द्वारा ही उसके व्यक्तित्व को आँकते हैं। ऐसा करना तो उस व्यक्तित्व की इदन्ता को स्थापित करने के लिए हैं किन्तु एक की प्रतीति को पाँच में विश्लेषित कर इदन्ता से कुछ दूर ही हटते हैं। यह दूरी असंभावना में बदलती हुई लगती है। जब हम यह जान लेते हैं कि एक भी स्कन्ध अपने आप में एक व्यष्टि न होकर अनन्त सतत् गतिमान 'अंशों' की समष्टि है। पञ्च स्कन्धों की अवधारणा की भाँति ही 'द्वादश आयतन' तथा 'अष्टादश धातु' की अवधारणाओं के आयामों में भी कुछ इसी प्रकार का ही चिन्तन किया जा सकता है। फलतः 'धर्म नैरात्म्य' की सिद्धि होती है और इस प्रकार व्यक्तित्व की इदन्ता पूर्णतया अनिर्वचनीय ठहरती है।
परिसंवाद-२
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