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बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में व्यष्टि एवं समष्टि
डॉ० केवलकृष्ण मित्तल
व्यष्टि एवं समष्टि दोनों ही परस्परापेक्षी अवधारणाएँ हैं, फिर भी साधारण व्यवहारिक चिन्तन के स्तर पर ही नहीं अपितु कतिपय दार्शनिक अभिमतों के परिप्रेक्ष्य में भी ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से व्यष्टि को आधार एवं समष्टि को आधेय माना जा सकता है । इस प्रकार व्यष्टि को 'प्रत्यय' एवं समष्टि को 'प्रत्ययोत्पन्न' समझा जाने के कारण द्वितीयोक्त की अपेक्षा प्रथमोक्त को मूल अवधारणा कहा जा सकता है अर्थात् ऐसा सोचा जाता है कि समष्टिको चर्चा बिना व्यष्टि के नहीं हो सकती। जबकि व्यष्टि की चर्चा बिना समष्टि के न केवल की ही जा सकती है अपितु ऐसा करना समीचीन भी है। इस प्रतीति का आधार है हमारे मानस में व्यष्टि का सम्बन्ध एकत्व से तथा समष्टि का नानात्व के साथ होने से है । प्रस्तुत लेखक को ऐसा लगता है कि सर्वसाधारण की इस प्रकार की मान्यता बौद्धदर्शन को स्वीकार्य नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें नियत इकाई के लिये कोई स्थान नहीं, और न ही ऐसी किसी समष्टि की ही चर्चा हो सकती है जो कि व्यवहारतः किसी व्यष्टि से आबद्ध न हो । समष्टि का उचित अर्थ समग्र अथवा सर्वस्व है बहुत्व नहीं । व्यष्टि एवं समष्टि के तादात्म्य सम्बन्ध के सन्दर्भ में ही, सर्वसामान्य में प्रचलित लोकोक्ति 'एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाये' तथा प्रसिद्धि जैन दार्शनिक श्रीकुन्दकुन्दाचार्य द्वारा लक्षित जैन आगम, आचारांग सूत्र में कथित 'जो एक को जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है (जे एगम् जानइ से सब्बे जानइ, जे सब जानइ से एगम् जानइ ) ' पर विचार किया जा सकता है ।
उपर्युक्त उद्धरित जैन उक्ति की समुचित व्याख्या या तो एकमेव अद्वितीयम्' की घोषणा करने वाले अद्वैत सिद्धान्त के सन्दर्भ में की जाती है अथवा बहुत्ववादी एवं यथार्थवादी जैन अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में की जाती है व्यष्टि एवं समष्टि के क्रमशः एकत्व और नानात्व से जुड़े होने की बात से सरलता पूर्वक इनकार नहीं किया जा सकता ।
कहना न होगा कि व्यष्टि एवं समष्टि को एकत्व और नानात्व से जोड़ने पर भी अथवा सम्भवतः उसी के कारण ही व्यष्टि एवं समष्टि दोनों की ही अस्मिमानता अथवा इदन्ता सिद्ध करना सम्भव नहीं, जबकि उनकी इदन्ता स्थापित किये बिना
परिसंवाद - २
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