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सत् है, वैसे ही समाज की भी व्यावहारिक सत्ता परस्पर सापेक्ष होकर प्रज्ञप्त होती है ( पं० रामशङ्कर त्रिपाठी )।
बौद्ध चिन्तन में प्रारंभ से ही पदार्थों के सम्बन्ध में उसका दार्शनिक स्वरूप रहा है अन्योऽन्यापेक्षवाद। यह प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त का प्रतिफलन है। इसके व्यापक प्रभाव में समाज की व्याख्या अछूती नहीं रह सकती ! इसीलिए इस गोष्ठी के जो विद्वान बौद्ध सन्दर्भ में व्यक्तिवादी मान्यता के पक्षधर थे और समाज को प्रमुख कारण मानने के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने भी व्यक्ति के विकास या विनाश में समाज को सहायक, निमित्त या सहयोगी के रूप म मान्यता दी। उन्होंने भिक्षु व्यक्ति और संघ के सम्बन्ध को एक दूसरे पर निर्भर, परस्पर सापेक्ष और प्रतीत्यसमुत्पन्न स्वीकार किया (आचार्य सेम्पादोर्जे, प्रो० एस० रिम्पोछे ) ।
बौद्धदर्शन व्यक्ति के समाजानुरोधी विकास के लिए अवसर इसलिए प्रदान करता है कि उसमें आत्मदृष्टि और नित्यता के विरोध में क्षणिकता का सिद्धान्त मान्य है। क्षणिकता का सिद्धान्त व्यक्ति के महत्त्व को खड़ा कर देता है। इस स्थिति में व्यक्ति बुद्धि और नैतिक आचरण के आधार पर ऊपर उठ सकता है। इसीलिए वह निवृत्तिवादी भी नहीं है, क्योंकि मनुष्य परस्पर एक दूसरे के आधार पर ही नैतिक या अनैतिक होता है। इस प्रकार निषेधात्मक दृष्टि से ही बौद्धों ने व्यक्ति और समाज की स्थिति को स्वीकार किया और इसके लिए शाश्वत नैतिक गुणों को आधार बनाया (प्रो० बी० वी० किशन)।
व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों पर चर्चा करने के पहले यह आवश्यक है कि बौद्ध सन्दर्भ में उनके अस्तित्व के स्वरूप एवं स्तर को समझा जाय। दोनों ही संवृति सत्य हैं, पारमार्थिक सत्ता दोनों की नहीं है ( श्री रामशंकर त्रिपाठी)। किञ्चित् परिवर्तन के साथ इससे मिलते-जुलते विचार प्रायः सभी विद्वानों के हैं। व्यष्टि एवं समष्टि एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है ( डॉ० महेश तिवारी)। समष्टिव्यष्टि सम्बन्धों के पीछे विशेष दृष्टियों का अभ्युपगम है, इस स्थिति में इस सम्बन्ध की सम्पूर्ण चर्चा प्रपञ्च भाषा में किया जाता है ( डॉ० रामचन्द्र पाण्डेय )। व्यक्ति एवं समाज दोनों अनुपलम्भ एवं असत् है। दोनों की व्यावहारिक सत्ता महाकरुणा पर आश्रित है ( डॉ० लालमणि जोशी)। समष्टि तात्त्विक नहीं, नाममात्र एवं भ्रान्तिमात्र है ( डॉ० हर्षनारायण )। उपर्युक्त विचारों में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है, उनका प्रयोग किसी न किसी तरह बौद्धग्रन्थों में मिलता है। किन्तु उसके आधार पर यह निर्णय लेना कि उक्त सभी वाक्य बौद्धदर्शन का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं यह विचारणीय है, इसके अनेक कारण हैं। जो वास्तविक नहीं है, वह माया है, वह अलीक है, भ्रम है, तुच्छ है, यह धारणा अन्य भारतीय दर्शनों में प्रचलित है। उसका भी कम या अधिक प्रभाव इन प्रतिज्ञा वाक्यों के पोछे हो सकता है। किसी भी स्थिति में इसका निर्णय लेना ही होगा कि बहुप्रचलित एवं शास्त्र व्यवहार का सामान्य शब्द संवृतिसत्य से अस्तित्व की जो धारणा बनती है, वह व्यक्ति और समाज की वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए कितना सक्षम
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