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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं ले सकता है, कुछ पा सकता है और वह बुद्ध व्यक्ति समाज को बदल सकता है, वह खुद समाज के पीछे-पीछे चरवाहे जैसा घूमता है, राजा नहीं बनता । व्यक्ति राजा या विचारक बनकर अपने में गौरव की अभिवृद्धि पनपाना है । चरवाहा बनने में बोझ ठोना पड़ता है । यह बोझ उत्तरदायित्व का बोझ है । राजा का पद पूँजीवाद व्यवस्था का पद है। विचारक भी बड़ा जागीरदार है। इसलिए रन्तिदेव कहता है
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामात्तिनाशनम् ॥ अवलोकितेश्वर भी निर्वाण नगरी को जाते जाते प्राणियों के आर्तनाद को सुनकर अपनी मुक्ति का लोभ त्याग कर 'जब तक संसार मुक्त न हो जाय, तब तक वह प्राणियों को मुक्ति दिलाने के लिए चरवाहे की भाँति' पीछे-पीछे लगे रहने की प्रतिज्ञा करते हैं। इसलिए ही वह कहते हैं प्राणी अपनी मुक्ति स्वयं करेगा, बोधिसत्त्व या बुद्ध तो उसका कल्याणमित्र बनकर मात्र राह दिखलाता है। कहा भी है
अत्ता हि अत्तनो नाथो कोहि नाथो परो सिया।
अत्तना व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ॥ इस प्रकार समष्टि का निर्माण व्यष्टि, आत्मा से अर्थात् जीव से प्रारम्भ होता है। यदि समष्टि का स्वरूप उचित रखना है तो व्यक्ति (व्यष्टि) को ठीक करना पड़ेगा
और इसमें मन को आधार बनाकर चलना होगा। बुद्ध ने मन पर बहुत बल दिया है। यहाँ तक कहा जाता है कि चित नदी यदि विवेक के साथ रहे तो वह कल्याण का रास्ता दिखाती है और यदि विवेक के बिना रहती है तो पाप का रास्ता दिखाती है । विवेक तर्क पर आधारित होता है पर तर्क, तर्क के लिए नहीं, अपितु मानवकल्याण के लिए होता है। इसीलिए बुद्ध कहते हैं मेरे वचनों को न तो श्रद्धा मात्र से और न केवल बड़प्पन की भावना से मानो। यदि उचित लगे अर्थात् मानवहितकारी हैं तो मानो। उन्होंने कहा यदि किसी सिंह के भय से भगा प्राणी अपनी रक्षा के लिए नदी में कूद पड़े और नदी में उसे किसी जंगली लकड़ी का सहारा मिल जाय, और उस सहारे से नदी पार करता हुआ—'यह मेरे जीवन का रक्षक है 'मान' उसको अपने घर लाकर यदि पूजे' तो वह मनुष्य का अहित करेगा। उसी प्रकार धर्म का गाठ पकड़कर, शास्त्र की शब्दावली रट कर हम समाज का हित कराने का
परिसंवाद-२
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