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सामाजिक संघटन की उत्पत्ति और बौद्ध दृष्टिकोण
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यद्यपि उसे सर्वोच्च सिद्ध करने का जरा भी प्रयास इस स्थान पर नहीं किया गया है। कुछ अन्य स्थानों पर बुद्ध क्षत्रियों को ब्राह्मणों से रोटी और बेटी के सर्वमान्य भारतीय मानदण्डों के आधार पर श्रेष्ठ सिद्ध करते दिखाये गये हैं, किन्तु वहाँ पूरी वर्ण व्यवस्था का जिक्र नहीं है । वहाँ 'खत्तिय' वर्ण मात्र कर्म के आधार पर है, और पूरे वर्ग को राज-वर्ग मान लिया गया है।
अन्य तीन वर्षों की उत्पत्ति भी वैदिक परम्परा में बर्णित सिद्धान्त से कोसों दूर है । 'बम्हन' शब्द का मूल 'वाहेन्ति' में है जिसका अर्थ होता है 'दूर रखना' । ब्राह्मणों को सर्वस्व त्यागी तपस्वी रूप में चित्रित किया गया है जो या तो ध्यान में लीन रहते थे (झायका) या वेद-पाठ करते थे। 'वेस्स' का जन्म 'विस्स' से बताया गया है जिसका अर्थ होता है 'अनेक' । वैश्य वे जो अनेक कार्य करते हों । अन्त में 'सुद्द' वे बताये गये हैं जो आखेट आदि पर निर्भर हों।
__स्पष्ट है कि वर्णों की ये व्याख्यायें नितान्त मौलिक हैं। यह नहीं बताया गया है कि एक वर्ण में जन्मा व्यक्ति क्या दूसरे वर्ण को चुन सकता है ? समाज एक स्वेच्छा से किये गये समझौते के फलस्वरूप अस्तित्व में आया है, इसलिए यह पूरी व्यवस्था मानव-कृत है तथा सम्भवतः बदली भी जा सकती है।
संवाद के शीर्षक के अनुरूप ही यह अनेक आधुनिक, विशेषकर वामपन्थी विचारों का 'अग्रज्ञान' जैसा प्रतीत होता है। संसार की सभी धार्मिक वैचारिक परम्पराओं ने समाज की उत्पत्ति के विषय में कुछ कहा है। उसे व्यक्तिगत सम्पत्ति के साथ प्रत्यक्षतः जोड़ने का काम निश्चय ही केवल बौद्धों ने किया है। सम्भवतः इसके लिये भी वही वस्तुवादी मनोवृत्ति उत्तरदायी हो जो अनेक रूप में त्रिपिटक में दिखाई देती है । बुद्ध स्पष्ट ही समाज को एक अनिवार्य बुराई के रूप में मानते प्रतीत होते हैं । यदि मानव में तृष्णा और संग्रह जैसी कुप्रवृत्तियाँ न होती, और फलस्वरूप वह व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा अपराधों को सम्भव न बनाता, तो सामाजिक संघटन भी न होता। यह धारणा ही अपने आप में विलक्षण है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के अभाव में अपराध भी अकल्पनीय है। पृथ्वी पर यह प्रारम्भिक युग जब धान बराबर खेतों में लगा रहता था और लोग अपनी आवश्यकतानुसार सुबह और शाम को काट लाते थे 'आदिम साम्यवाद' का स्मरण कराता है। , १. उदाहरणार्थ, दीघनिकाय के तीसरे तथा अट्ठाइसवै सुत्त ।
परिसंवाद-२
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