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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं आचार्य शान्तिदेव ने शिक्षासमुच्चय कारिका की १ में कहा है
यदा मम परेषां च भयं दुःखं च न प्रियम् ।
तदात्मनः को विशेषो यत्तं रक्षामि नेतरम् ॥ पालि एवं संस्कृत ग्रन्थों से उद्धृत उपर्युक्त चार श्लोकों से उन सभी विचारादों की पुष्टि होती है जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है। सभी प्राणी मृत्यु से डरते हैं, और सभी को जीवन प्यारा है, ऐसा जानकर अपने को दूसरे के समान और दूसरे को अपने समान, जानने वाला हिंसा व हत्या कभी नहीं कर सकता है । आचार्य आर्य देव ने तो केवल दो शब्दों में बौद्धमत का सारांग गर दिया है। अहिंसा सम्पूर्ण धर्म का सार है और शून्यता ही निर्वाण है। दूसरे शब्दों में महाकरुणा मार्ग है और महाप्रज्ञा चरमलक्ष्य है। व्यष्टि एवं समष्टि दोनों की व्यावहारिक सत्ता महाकरुणा पर आश्रित है और महाकरुणा की उपस्थिति में स्वाचिता की कोई गंजाइश नहीं है। इसी विचार को दुहराते हुए आचार्य शाल्लिदेव ने बोधिचर्यावतार ८-९० में कहा हैं--
"परात्मसमतामादौ भावयेदेवमादरात् ।
समदुःखसुखाः सर्वे पालनीया मयात्मवत् ॥" जब "स्व" एवं “पर'' में भेद नहीं है, अर्थात् जब "मेरे" में और "आप" में एकता है, तब परात्मसमता अथवा परात्मपरिवर्तन ही एकमात्र सार्वभौम नियम रह जाता है। यही व्यक्ति एवं समाज की एकता का चरमोत्कर्ष है और विमलकोतिनिर्देशसूत्र के अनुसार यही धर्म का सर्वस्व है। ४. संसार का महत्व और बुद्धक्षेत्र का अर्थ
महायान सूत्रों का एक प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है बुद्धक्षेत्र की महत्ता । बुद्धक्षेत्र क्या है ? यह किसी काल्पनिक रवर्ग का नामान्तर नहीं। अपितु हमारे इस संसार का ही एक सुन्दर नाम है। जिरा खेत में बद्धाकर उगते हैं और फलीभन होते हैं उसे ही बुद्धखेत अथवा बुद्धक्षेत्र कहते हैं। भगवान् शाक्यमुनि का बुद्धक्षेत्र हमारा सहालोकधातु है । पाँच कपायों (क्लेशकपाय, दृष्टिकपाय, सत्त्वकषाय, आयुःकपाय एवं कल्पकपाय) से कलुषित इस सहालोक को तथागत शाक्यमुनि ने महाकारुण्य से ओतप्रोत होने के कारण स्वेच्छा से अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय एवं लोकानुकम्पाय उन्होंने इस संसार में अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि का कार्यक्रम प्रारम्भ किया था । व्यष्टि और समष्टि के व्यवहारतः तथा परमार्थतः मूलभूत
परिसंवाद-२
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