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व्यक्ति और समाज-एक विवेचन को अपने ज्ञान और उपाय का विकास पराकाष्ठा तक करना होता है, जो बुद्धत्व की अवस्था में ही सम्भव है । इसलिए बुद्धत्व की प्राप्ति और पारमिताओं की साधना में वे लग जाते हैं। बोधिसत्त्व का परार्थ का अभिलाषी होना कोई विवशता नहीं है। सम्यक् दृष्टि से स्व और पर का भेद और उसका आधार जान लेने से समस्त भेदों के आधार टूटते हैं । इस स्थिति में स्व और पर की संज्ञा तक समाप्त हो जाती है। जब स्व और पर की संज्ञा समाप्त हो जाती है तब सब का दुःख अपना दुःख होता है । वह सभी के दुःख से स्वयं को दुःखी अनुभव करता है। दुःख का निदान और सुख की अभिलाषा करना उसकी सहज प्रकृति हो जाती है ।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर मैं निम्नलिखित आशय प्रस्तुत करना चाहता हूँ
(१) व्यक्ति की सत्ता स्वतन्त्र है। उसके सभी विकासों का आधार उसके ही भीतर निहित है।
(२) असम्यक् समाज का आधार मिथ्यादृष्टि है, जिसका निर्मूलन सम्भव है । सम्यक् समाज का आधार सम्यक् दृष्टि है जिसमें समता की सम्भावना निहित है।
(३) व्यक्ति और समाज दोनों के सुधार के लिए व्यक्ति को ही सुधारना है। और उसके सामर्थ्य के विकास को चरम सीमा तक पहुँचाना एक मात्र उपाय है।
(४) समाज के घटक व्यक्ति का जैसे-जैसे स्तरोन्नयन होगा, उससे सम्बन्धित समाज का भी स्तर वैसे-वैसे ही समकक्ष होगा । बौद्ध आचार्यों का यही मत होगा, ऐसा मुझे प्रतीत होता है।
परिसंवाद-२
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