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समाज व्यवस्था में अनेकान्त
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है। व्यक्ति समाज में अभेद का सूत्र है तंत्र। समाज में तन्त्रों का एक समवाय है। अन्य वस्तु राज्यतंत्र, व्यवसाय तंत्र, शिक्षातंत्र और धर्मतंत्र सामाजिक जीवन को संचालित करते हैं। जीवन निर्वाह के लिए अर्थतन्त्र राज्यतन्त्र एवं व्यवस्था तंत्र कार्य कर रहे हैं। जीवन विकास के लिए शिक्षा और धर्मतंत्र क्रियाशील हैं। वर्तमान में ये तंत्र संतुलित नहीं हैं। अर्थतंत्र के साथ विसर्जन या व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा नहीं जुड़ी हुई है इसलिए वह असंतुलित है। राज्यतंत्र केवल नियंत्रण के आधार पर चल रहा है उसके साथ हृदय परिवर्तन का प्रयोग जुड़ा हुआ नहीं है अत: वह असंतुलित है। व्यवसाय तंत्र में प्रामाणिकता का प्रयोग नहीं है अत: असंतुलित है। शिक्षातंत्र एकांगी विकास की परिक्रमा कर रहा है। वह सर्वाङ्गीण विकास की धुरी पर नहीं चल रहा है अत: असंतुलित है। धर्मतंत्र में उपासना का स्थान मुख्य और चारित्र का स्थान गौण हो गया है इसलिए उसका असंतुलन भी ठीक नहीं है। अनेकान्त इन सब तंत्रों में संतुलन की बात करता है। जब ये तंत्र संलित होंगे तो निश्चित ही अनेकान्त की समाज व्यवस्था प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी होगी।
अनेकान्त दृष्टि से समस्या का समाधान खोजने पर आग्रह-विग्रह का प्रसंग उपस्थित नहीं होता। अनेकान्त दृष्टि वाला व्यक्ति किसी एक मान्यता, सिद्धान्त, प्रथा में आसक्त नहीं होता है। वह हिताहित पर विचार करता है। अनेकान्ती मान्यता परम्पराओं को छोड़ती नहीं है किन्तु उन पर विचार कर हेय उपादेय का विवेक करती है! अनेकान्तवादी व्यक्ति किसी एक के साथ हठधर्मिता नहीं रखता। अनेकान्त में कट्टरता एवं संकीर्णता का कोई स्थान नहीं है। उसका दृष्टिकोण व्यापक है। अनेकान्ती अपना हित साधेगा किन्तु दूसरों का अहित करके नहीं। यदि उसकी कार्यशैली से दूसरों का अहित हो रहा है तो वह अपनी कार्यशैली पर पुनर्चित्तन करके परिवर्तन करेगा। अपने चिंतन के प्रतिराग एवं दूसरों के चिंतन के प्रति द्वेष रखने वाला कभी अनेकान्ती नहीं हो सकता। राग-द्वेष से जितनी मुक्ति होगी उतना ही व्यक्ति का चिन्तन अनेकान्ती एवं सम्यक बनेगा। समाज के संदर्भ में अनेकान्त का अर्थ होगा अपने चिन्तन को हितकारी बनाना, समाज एवं व्यक्ति को साथ-साथ सुधारना। मैं कहता हूँ सत्य वही है तू कहता है वह सत्य नहीं है" यह विचारधारा समाज को अवनति के गर्त में ले जाती है। समाज का विकास अनेकान्ती विचार से ही हो सकता है। सन्दर्भ१. सन्मति सूत्र, सिद्धसेन दिवाकर- ३/७० २. वही- ३/४७
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