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समाज व्यवस्था में अनेकान्त
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कोई भी व्यवस्था सर्वथा पूर्ण नहीं होती न ही सर्वथा ग्राह्य। यही सिद्धान्त इन आर्थिक व्यवस्थाओं पर घटित होता है। साम्यवादी व्यवस्था में मात्र समाज पर ध्यान केन्द्रित किया गया। व्यक्ति को मात्र यंत्र समझा गया, उसकी वैयक्तिक स्वतन्त्रता का हनन हुआ, इस व्यवस्था में वैयक्तिकता का शोषण हुआ। साम्यवाद में व्यवस्था को तो बदला गया किन्तु व्यक्ति को सर्वथा उपेक्षित कर दिया गया। सम्पत्ति के सार्वजनिकीकरण की व्यवस्था भी कारगर न हो सकी। साम्यवादी शासकों के जीवन में भी घोर विलासिता देखी गई। रोमानियाँ के राष्ट्रपति का जीवन इसका स्वत: प्रमाण है। उसके पहनने की चप्पलों तक में हीरे जड़े हुये थे। अत: व्यक्ति की उपेक्षा करके मात्र व्यवस्था बदलने से समाज की स्वस्थ संरचना नहीं हो सकती। साम्यवादी व्यवस्था में कार्य की अभिप्रेरणा ही प्राप्त नहीं होती, अत: व्यक्ति विकास नहीं कर सकता।
पूंजीवादी व्यवस्था में भौतिक संसाधनों की वृद्धि को ही विकास का मानदण्ड माना गया। Have and have not के आधार पर व्यक्ति विशेष का विभाजन हुआ। पूंजीवादी व्यवस्था में भौतिक विकास जितना हुआ उससे भी कहीं अधिक मानसिक अनुताप बढ़ा। पूंजीवाद की विकास की अवधारणा ही समीचीन नहीं है। पूंजीवादी देशों में भौतिक सुख-सुविधा के साधनों की भरमार होने पर भी वहां के ८.०% व्यक्ति मानसिक अशान्ति में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पागलपन, नशीले वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति व्यक्ति को आत्म निरीक्षण की प्रेरणा दे रही है। तथ्य के साथ आंख मिचौनी की गयी। सत्य तो यह है कि शान्ति सुख आन्तरिक होता है बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु हो रहा है इसके विपरीत। अनेकान्त दर्शन के अनुसार व्यक्ति और समाज को सापेक्ष मूल्य प्रदान किया जाये। उनकी प्रकृति को समझा जाये। व्यवस्था भी बदले साथ में व्यक्ति का हृदय परिवर्तन भी हो। कोरा व्यक्ति बदले तब भी स्वस्थ समाज संरचना नहीं हो सकती। केवल सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन भी स्थायी स्वस्थ व्यवस्था नहीं दे सकते। कुछ लोगों की यह अवधारणा है कि व्यवस्था बदलने से ही सारा परिवर्तन घटित हो जायेगा। यह एकांगी अवधारणा है। व्यक्ति एवं समाज दोनों का सुधार साथ-साथ चाहिए तभी स्वस्थ समाज व्यवस्था हो सकती है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है इस वास्तविकता के संदर्भ में अर्थशास्त्र का आवश्यकता बढ़ाओ का सिद्धान्त गलत नहीं है किन्तु मनुष्य क्या केवल सामाजिक ही है? क्या वह व्यक्ति नहीं है? क्या उसमें सुख-दुःख का संवेदन नहीं? आवश्यकताओं का असीमित दबाव क्या उसमें शारीरिक, मानसिक तनाव पैदा नहीं करता? इस मानवीय एवं आध्यात्मिक, दृष्टिकोण से इच्छाओं को सीमित करना आवश्यक है। अर्थशास्त्रीय एवं अध्यात्म शास्त्रीय दृष्टिकोण को पृथक-पृथक संदर्भ में देखना होगा।
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