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समाज व्यवस्था में अनेकान्त
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विषय नहीं हो सकता। वाणी के द्वारा तो सत्यांश का ही प्रतिपादन किया जा सकता है। अनेकांत के अनुसार सभी विचारों में सत्यांश है वे भ्रान्त नहीं हैं। सिद्धसेन दिवाकर ने कहा -
"जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया।' किन्त इस सच्चाई को भी सामने रखना होगा कि विचार में सत्यांश अवश्य है किन्तु वही एकमात्र पूर्ण सत्य नहीं है। इस कसौटी पर चिन्तन को कसने पर विचार कभी संकीर्ण नहीं हो सकते। सम्भावनाओं का व्यापक द्वार खुला रहता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं परिस्थिति आदि के अनुसार चिन्तन मुख्य, गौण भी होते रहे हैं। अनेकान्त स्वत: सिद्ध तत्त्व-मीमांसा नहीं वह विचारतंत्र का उपकरण है। दार्शनिक समस्याओं के निराकरण में अनेकान्त का प्रयोग बहुत हुआ है। किन्तु आज यह अपेक्षा महसूस की जा रही है कि क्या अनेकान्त जीवन दर्शन बन सकता है? क्या अनेकान्त के द्वारा समसामयिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। जो सिद्धान्त समसामयिक समस्याओं का समाधान न दे सके उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अनेकान्त आज भी प्रासंगिक है, अपेक्षा मात्र इतनी है कि व्यक्ति इसके प्रयोक्ता बनें। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक आदि विभिन्न समस्याओं का समाधान अनेकान्त दृष्टि से प्राप्त हो सकता है। यहाँ हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि समाज व्यवस्था के संदर्भ में अनेकान्त की क्या भूमिका हो सकती है।
समाज एवं समाजशास्त्र के क्षेत्र में अनेकान्त की भूमिका निर्धारण से पूर्व वर्तमान में प्रचलित समाज एवं समाजशास्त्र की अवधारणाओं पर विचार विमर्श आवश्यक है। व्यक्ति पारिवारिक, धार्मिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय आदि अनेक सम्बन्धों से जुड़ा होता है। सामाजिक सम्बन्धों का यही जाल जब अनेक रीतियों और नियमों से एक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाता है तब इसी व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। मेकाइवर एवं पेज ने समाज को परिभाषित करते हुए कहा कि “समाज रीतियों, कार्यविधियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों तथा अनेक विभाजनों, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों तथा स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तित होने वाली तथा जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं, समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और सदैव परिवर्तित होता रहता है।” मेकाइवर ने समाज को सामाजिक सम्बन्धों का जाल कहते हुये उन आधारों को भी स्पष्ट किया है। उन आधारों के द्वारा ये सम्बन्ध व्यवस्थित समाज संरचना का निर्माण करते हैं। गिन्सबर्ग का कथन है कि - "समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कछ व्यवहारों अथवा सम्बन्धों की निधियों द्वारा संगठित है तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बंधे हुये नहीं हैं अथवा जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं। इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो
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