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समाज में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद की महत्ता
को भी अपेक्षाकृत सत्य स्वीकार करने में संकोच नहीं करता। इसलिए जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहलाता है और अनेकान्तवाद तथा जैन दर्शन शब्द परस्पर पर्यायवाची बन गये हैं।
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अनेकान्त शब्द 'अनेक' 'अंत' इन दो शब्दों के मेल से बना है और उसका अर्थ किया गया है कि जिसमें अनेक अंत अर्थात् धर्म पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं । जो भी जीवादि पदार्थ हैं वे सब अनेकान्त स्वरूप हैं तथा जो वस्तु अनेकान्त स्वरूप है वही नियम से कार्य करने में समर्थ है।' आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा है कि सत्-असत्, नित्यअनित्य, एक, अनेक इत्यादि सर्वथा एकान्त का निराकरण अनेकान्त है।
वैसे तो सभी धर्म दर्शन अनेकान्त को किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं लेकिन जैन दर्शन में इसको सिद्धान्त का रूप देकर जैन आचार्यों ने अपने विशाल दृष्टिकोण का परिचय दिया है। जिस अणु में जहाँ अपनी शक्तियों को अपने में समेटने की आकर्षक शक्ति है वही दूसरे अणु में दूर रहने की विकर्षण शक्ति भी है। अगर ऐसा न होता तो या तो ग्रह - उपग्रह अपने तत्त्वों को सौरमंडल में बिखेर देते अथवा सब टकराकर विप्लव मचा देते किन्तु ऐसा नहीं है। विज्ञान की जो शक्ति सृजनकारी है वही प्राणघाती भी है। इस प्रकार विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में अनेकान्तात्मकता परिलक्षित होती है।' अनेकान्त सर्वनयात्मक है, जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में बिखेरने से मोतियों का सुन्दर हार बन जाता है उसी प्रकार भिन्न-भिन्न रूपों को स्याद्वाद रूपी सूत्र में पिरो देने से सम्पूर्ण नय श्रुत प्रमाण कहे जाते हैं । ३
अनेकान्तवाद के माध्यम से समाज में कलह, अशांति एवं विरोध का वातावरण दूर किया जा सकता है। यदि हम आग्रह को छोड़कर अपेक्षावाद को अपना लें तो फिर झगड़ा एवं विरोध किस बात का । यहाँ लड़ाई 'ही' और 'भी' के बीच में है। अनेकान्तवाद 'भी' का समर्थन करता है और ही का विरोध । एक कवि ने उसी बात को निम्न प्रकार स्पष्ट किया है।
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भी से भला हुआ दुनियाँ का
ही से आहत हुआ अनेकान्त दर्शन है
भारी |
भी में
भारी ।
ही
में है आग्रह यदि अपेक्षाएँ हट जाएँ तो टिक पाते धर्म नहीं बिना अपेक्षा धर्म
कर्म का
पाया
जाता मर्म
नहीं ॥
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