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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
परिवर्तित परिस्थिति में यदि निर्णय बदलने की स्थिति नेता में नहीं हैं तो वह अपने समूह को भी स्थितिपालक और रूढ़ बना देगा। अनेकान्त का मुख्य दर्शन यही है कि पर्याय सत्य है पर ध्रौव्य के साथ। नेता यदि मौलिकता को सुरक्षित रखते हए परिस्थिति के अनुसार स्वयं को तथा संगठन को नहीं बदलता तो वह युग के साथ गति करने में पिछड़ जाता है।
इसी का दूसरा पहलू यह है कि यदि परिवर्तन में अनुशास्ता का विश्वास नहीं होगा तो व्यक्ति के बदल जाने पर भी वह उसे पुराने चश्मे से देखेगा तथा उसके प्रति न्याय नहीं कर पाएगा अतः लचीलापन स्वभावपरिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन दोनों में योगभूत बनता है।
समूह में नानारुचि वाले व्यक्ति होते हैं यदि चिन्तन लचीला न होकर संकीर्ण या एकांगी होगा तो सबकी क्षमताओं का लाभ नहीं उठाया जा सकेगा अत: उनका सम्यक नियोजन भी नहीं हो सकेगा। अनाग्रही शासक द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव के अनुसार किस व्यक्ति को कहां नियोजित करना - यह निर्णय करने में कामयाब होता है तथा योग्यता और क्षमता के अनुसार सबको भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में गति करवाकर अपने संगठन को शक्तिसम्पन्न और प्रगतिशील बना देता है।
व्यवहारभाष्य का निम्न उदाहरण अनुशासन में अनेकान्त का बेजोड़ उदाहरण है। एक ही गलती तीन शिष्य करके आए पर तीनों को दंड अलग-अलग दिया गया। एक व्यक्ति जिसने कभी गलती नहीं की उसे बहत कम दण्ड दिया गया, गलती महसूस करने वाले को कुछ ज्यादा तथा बार-बार गलती करने वाले को अधिक। देखने में यद्यपि यह पक्षपात पूर्ण निर्णय लगता है पर उसका परिणाम ठीक आया। यदि लचीलापन या अवसर को समझने की क्षमता नहीं तो सर्वत्र आराजकता का राज्य हो जायेगा।
आचार्य श्री तुलसी ने अपने अनुशासन में ऐसे अनेक प्रयोग किए। एक समय ऐसा आया जब संघ के अनेक वरिष्ठ साधुओं ने किसी विचारभेद से संघविच्छेद कर दिया। उस समय आचार्य श्री ने जो निर्णय लिया वह अनेकान्तदृष्टि का जीवन्त उदाहरण था। उन्होंने सही होते हए भी अपने व्यक्तिगत विचारों को छोड़ दिया तथा सबको आश्वस्त करते हुए संघ की एकता को खंडित नहीं होने दिया। उनकी अनाग्रह वृत्ति को देखकर विरोधी संत भी समर्पित हो गए। यह अनुशासन में अनेकान्त के प्रयोग का चमत्कार था। अतः अनुशास्ता को अनेक बार सफलतापूर्वक पीछे भी हटना पड़ता है।
दार्शनिक क्षेत्र में अनेकान्त को सिद्धान्त रूप में ही नहीं अपितु अनुशास्ता
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