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अनेकान्तवाद
की मानसिक स्थिति भिन्न-भिन्न होती है, भिन्न धरातल, योग्यता, व्यक्तित्व व सामाजिक, पारिवारिक परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति कार्य करता है। इसे समझने के लिए अनेक दृष्टिकोणों से देखने परखने की अनेकान्तवादी पद्धति महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति अपने विकास के साथ दूसरों के विकास में भी सहायक हो सकता है। इस पद्धति से हमारी मानसिक परिकल्पना बढ़ जाने से चेतना जाग उठती है और तब हमारा व्यवहार वास्तविक धरातल पर स्थित रहता है; कोरे आदर्शों में नहीं बट जाता जिससे संघर्षों को समझने की शक्ति जाग उठती है । व्यर्थ लड़ाई-झगड़ा, मानसिक खींचातानी कम हो जाती है। ईर्ष्या, क्लेश, वैर भावना, तीव्र राग-द्वेष आदि वृत्तियों को हम समझकर उन पर काबू पाने का प्रयत्न कर सकते हैं। इससे जीवन में सुख चैन बढ़ता है। कभीकभी व्यक्ति मानसिक तनाव के कारण सुख-चैन खो देता है । अपने आप को दुःखी समझने लगता है, अप्रचलित व्यवहार भी कर देता है । मानसिक गुत्थियों और भाव प्रवणता के कारण दूसरों को तकलीफ देने वाला व्यवहार कर बैठता है। ऐसे में अनेकान्तवादी दृष्टिकोण हमारी सहायता कर सकता है। जब राग और द्वेष का मनोभाव तीव्र होता है तब बौद्धिक अहिंसा का आचरण कैसे हो सकता है? इसलिए अनेकान्तवादी दृष्टि - बिन्दु को अपना कर विशाल दृष्टिबिन्दु (Open mindedness) प्राप्त कर सकता है जो व्यक्ति के भीतर सुषुप्त अहम् को उर्ध्वगामी बनाने में सहायक होता है। मनोविज्ञान मनुष्य के अन्तर्मन, चेतन अवचेतन मन की गुत्थियों को समझने, देता है यही सैद्धान्तिक रूप से अनेकान्तवादी दृष्टिकोण भी करता है । न्याय के क्षेत्र में
पर जोर
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अनेकान्तवादी पद्धति से निर्णय पक्षपात युक्त न होकर अधिक तटस्थ हो सकता है। लोकतंत्र में व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा का भार न्यायालय पर होता है। निर्दोष व्यक्ति अपराधी न ठहराया जाए तथा अपराधी व्यक्ति को उसके कर्मों का दण्ड मिले, इसे न्याय प्रक्रिया मद्देनजर रखती है। आज आवश्यकता है कि न्यायपालिका केवल सबूतों के आधार पर ही दंड न देकर उस मानसिक दशा पर भी ध्यान दे जिसके तहत यह अपराध होता है। मनुष्य द्वारा किए गए अपराध के पीछे उसकी मानसिक स्थिति जो कभी तो व्यक्तित्वजन्य और कभी तो समाजजन्य होती है, का बहुत बड़ा हाथ है। यह ठीक है कि आज तटस्थ, निर्भीक, बहुपरिणामलक्षी न्याय और तदनुरूप कार्यवाही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । व्यक्ति की स्वायत्तता का रक्षण भी इसी विचार पद्धति से स्वीकार्य हो सकता है। परन्तु इसके लिए 'केवल ऐसा ही हो सकता है 'या' होना है' की अपेक्षा 'वैसा भी हो सकता है', 'होना है 'या' होगा' की विचार पद्धति अधिक उपयोगी हो सकती है। वादी प्रतिवादी, साक्षी, तरफदारों की चर्चा में अनेकान्तवादी विचारधारा से स्पष्टता हो सकती है, अन्याय की गुंजाइश कम हो सकती है। आज तो
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