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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
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बोलने लगना, ये लक्षण छोटे लोगों के ही होते हैं, जो कदाचित् सत्य की राह पर अभी आए ही नहीं हैं। सत्य के मार्ग पर आया हुआ मनुष्य हठी नहीं होता, बल्कि स्याद्वादी होता है। जब तक विश्व के विचारक और शासक स्याद्वादी भाषा का प्रयोग नहीं सीखते, तब तक न तो संसार के धर्मों में एकता होगा, न विश्व के विचार और मतवादी ही एक हो पायेंगे५३। अनेकान्तवाद : सर्वधर्मसमभाव
अनेकान्तवादी दूसरे धर्मों के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता है। वह सब धर्मों में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से आंशिक सत्य देखता है। मैक्समूलर ने कहा है - "मेरा मत है कि संसार के महान धर्मों में से प्रत्येक में एक दैवीय तत्त्व विद्यमान है। मैं समझता हँ कि उनको शैतान की कारस्तानी बताना, जबकि वे सब ईश्वर के बनाए हुए हैं, ईश्वर की निन्दा करना है, और मेरा मत है कि ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ परमात्मा में विश्वास उस दैवीय स्फूरण के बिना हो गया हो, जो मनुष्य में कार्य कर रही दैवीय आत्मा का प्रभाव है। यदि मैं इससे भिन्न विश्वास करूं, यदि मैं अपनी गम्भीरतम सहजवृत्ति के विरुद्ध अपने आपको यह मानने के लिए विवश करूं कि केवल ईसाइयों की प्रार्थनायें ही ऐसी हैं, जिन्हें कि परमात्मा समझ सकता है, तो मैं अपने आपको ईसाई नहीं कह सकता। सब धर्म केवल हकलाने (अस्फुट भाषण) जैसे हैं, हमारा अपना धर्म भी उतना ही ऐसा है, जितना कि ब्राह्मणों का धर्म। उन सबका अर्थ समझना होगा; और मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि उनमें चाहे जो भी त्रुटियाँ क्यों न हों, उनका अर्थ समझा ही जायगा५४।
जैन दार्शनिकों ने दार्शनिक एकान्तवादों का समन्वय करने का प्रयत्न किया, ताकि सबकी कथंचित् सत्यता का भी भान हो सके। इस दृष्टिकोण से उन्होंने भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, कालवाद, स्वभाववाद, आत्मवाद, पुरुषार्थवाद आदि विभिन्न वादों का स्याद्वाद पद्धति से समन्वय किया है। जैन दर्शन के सभी ग्रन्थ इसी स्याद्वाद शैली से गम्फित हैं। अनेकान्तवाद और प्रेम
प्रेम का अर्थ है व्यक्ति द्वारा अपनेपन का और अपने प्रभावों का परित्याग। प्रेम दूसरे मनुष्य की आँखों से देखना, दूसरे मनुष्य के हृदय से अनुभव करना और दूसरे मनुष्य के मन के अनुसार समझना है। मनुष्य को सदा प्रेमपूर्वक रहना चाहिए
और जिन्होंने हमें कष्ट दिया है, उन पर भी निर्दय होकर अत्याचार नहीं करना चाहिए। जब हम प्रेम करते हैं, तब हमें घृणा का अधिकार नहीं होता, भले ही प्रेमपात्र कितना
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