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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
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जीव कर्ता है, नहीं भी है
किसी एक नय से आत्मा (पुण्य-पापादि परिणामों का) कर्ता है और किसी एक नय से (निश्चय नय से) आत्मा इन परिणामों का कर्ता नहीं है, इस प्रकार जो जानता है, वह ज्ञानी होता है। ज्ञानी जीव अपने अनेक प्रकार के होने वाले परिणामों का जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की अवस्थारूप न परिणमन करता है, न उसको ग्रहण करता है, न उस रूप उत्पन्न ही होता है।५ (इसलिए निश्चय से उसके साथ कर्ता कर्मभाव नहीं है)। व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों का है और उन्हीं अनेक प्रकार के कर्मों को भोगता भी है।६।।
जैसे देखने में आता है कि घड़े का उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड है, उसी का घड़ा बनता है, तथापि घड़े को बनाने वाला कुम्हार है और जल धारण करना, उसका मूल्य लेना आदि फल का भोक्ता भी वही कुम्हार है, यह अनादिकाल से लोगों का व्यवहार चला आया है। वैसे ही उपादान रूप से कर्मों का पैदा करने वाला भी कार्मणवर्गणा योग्य पद्गल द्रव्य हैं, जो अनेक प्रकार के मूल उत्तर प्रकृति भेद लिए हुए नाना प्रकार ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्म हैं, उसका करने वाला व्यवहारनय से आत्मा है, ऐसा समझा जाता है । जीव के अध्यवसानादि भाव निश्चयनय से नहीं है, व्यवहारनय से है
आत्मा को नहीं जानने वाले मूढ़ पुरुष परद्रव्य को ही आत्मा मानते हैं, उनमें से कितने ही अध्यवसान (रागादि) को, कुछ कर्म को ही जीव कहते हैं तथा कुछ अध्यवसानों में भी तीव्रता, मन्दता को लिए हुए जो अनुभाग होता है, उसे जीव मानते हैं। अन्य कोई नोकर्म को ही जीव मानते हैं। कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं। कोई कर्म के फल को जो तीव्र, मन्द रूप गणों से भेद को प्राप्त होता है, वह जीव है ऐसा इष्ट करते हैं। कोई जीव और कर्म दोनों मिले हुए को जीव मानते हैं। अन्य कोई लोग कर्मों के परस्पर संयोग से पैदा हुआ जीव को मानते हैं। इस प्रकार और भी आत्मा के विषय में अज्ञानी लोग भिन्न-भिन्न कल्पनायें करते हैं, वे वस्तुस्थिति को जानने वाले नहीं है। उपर्युक्त सभी अवस्थायें पौद्गलिक द्रव्य कर्म के सम्बन्ध से होने वाली हैं, इसलिए वे सब जीव नहीं कही जा सकती।
ये रागादि अध्यवसानमयी भाव जीव हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने जो उपदेश दिया है, वह व्यवहार नय का मत है । आत्मा अनेकान्तमय है, फिर भी उसका ज्ञानमात्र से कथन क्यों?
लक्षण की प्रसिद्धि के द्वारा लक्ष्य की प्रसिद्धि करने के लिए आत्मा का ज्ञानमात्ररूप से व्यपदेश किया जाता है। आत्मा का ज्ञान लक्षण है; क्योंकि ज्ञान आत्मा
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