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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
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पहले जितने प्रकार के स्वधर्म या परधर्म कहे गए हैं, उन सबमें प्रकृत घड़ा अन्य घड़ों से एक, दो, तीन आदि अनन्त धर्मों से समानता रखता है, घड़ों से ही क्या, अन्य पदार्थों से भी घड़े की एक, दो आदि सैकड़ों धर्मों से समानता पायी जाती है। अत: सादृश्य रूपी सामान्य की दृष्टि से घड़े के अनन्त ही सदृशपरिणमन रूप स्वभाव हो सकते हैं। इस प्रकार सामान्य की अपेक्षा घड़े में स्वपर्याय तथा उससे भिन्न धर्मों की अपेक्षा परपर्यायों का विचार करना चाहिए।
इसी तरह यह घड़ा अन्य अनन्त ही द्रव्यों से एक, दो, तीन आदि अनन्त ही धर्मों की अपेक्षा विलक्षण है, उनसे व्यावृत्त होता है, अत: उसमें अन्य पदार्थों से विलक्षणता कराने वाले अनन्त ही धर्म विद्यमान हैं और इसीलिए वह विशेष विलक्षणता की दृष्टि से भी अनन्त स्वभाव वाला है। अनन्त ही द्रव्यों की अपेक्षा इस घड़े में किसी की अपेक्षा मोटापन तो किसी की अपेक्षा पतलापन, किसी की अपेक्षा समानता, असमानता, सूक्ष्मता, स्थूलता, तीव्रता, सुन्दरता, चौड़ापन, सकरापन, नीचता, उच्चता, विशालमुखपना आदि अनन्त ही प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। इस तरह इन सूक्ष्मता आदि धर्मों की अपेक्षा भी घड़े में अनन्त स्वधर्म हैं।
इसी तरह घड़े की जिन जिन स्व-पर पर्यायों का कथन किया है, उनके उत्पाद, विनाश तथा स्थिति रूप धर्म अनादिकाल से बराबर प्रतिक्षण होते आ रहे हैं, पहले भी होते थे तथा आगे भी होते जायेंगे। इन त्रैकालिक उत्पाद, विनाश तथा स्थिति रूप त्रिपदी से भी घड़े में अनन्त धर्म सिद्ध होते हैं।
जब ऊपर कहे गए स्वद्रव्य, क्षेत्र आदि तथा परद्रव्य क्षेत्र आदि की अपेक्षा घट को एक ही शब्द से एक ही साथ कहने की इच्छा होती है तो घड़ा अवक्तव्य हो जाता है; क्योंकि संसार में कोई ऐसा शब्द ही नहीं है, जिससे घड़े के स्वधर्मों का युगपत् प्रधान भाव से कथन किया जा सके। शब्द के द्वारा वे दोनों धर्म क्रम से ही कहे जा सकते हैं, एक साथ प्रधान रूप से नहीं। इस तरह प्रत्येक स्वधर्म और परधर्म की एक साथ कहने की इच्छा होने पर घड़े में अवक्तव्य धर्म भी पाया जाता है। यह अवक्तव्य धर्म स्वपर्याय है। यह अवक्तव्य धर्म अन्य अनन्त वक्तव्य धर्मों से तथा अन्य पदार्थों से व्यावृत्त है, अत: इसकी अपेक्षा अनन्त ही परपर्याय होते हैं।
जिस तरह घड़े में अनन्त धर्मों की योजना की गई है, उसी तरह समस्त आत्मा आदि पदार्थों में अनन्त धर्मों का सद्भाव समझ लेना चाहिए।.
भगवान् जिनेन्द्र के वचन अनेकान्तरूप हैं। अनेकान्त सम्पूर्ण नयों के समूह को कहते हैं। जिस प्रकार विखरे हुए मोतियों को एक सूत में पिरो देने से हार बन जाता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न पड़े हुए नयरूप मोतियों को स्याद्वाद रूपी एक सूत में पिरो देने से उसकी 'श्रुतप्रमाण' संज्ञा हो जाती है।
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