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Multi-dimensional Application of Anekantavāda
जली रस्सी की तरह सिद्ध की आत्मा के ऊपर भी पड़े रहते हैं तब भी बन्धन में कारण नहीं हो सकते। अत: सिद्धों के कर्मक्षय में भी अनेकान्तरूपता है। इस तरह प्रत्यक्ष एवं अनुमानादि प्रमाणों से सर्वथा अबाधित अनेकान्त शासन की सिद्धि हो जाती है । वस्तु की अनेकान्तात्मकता अनुभवगम्य है
आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शन - समुच्चय में वस्तु की अनेकान्तात्मकता को अनुभवगम्य सिद्ध किया है। उनके अनुसार सभी प्रमाण या प्रमेय रूप वस्तु में स्व-पर द्रव्य की अपेक्षा क्रम और युगपत् रूप से अनेक धर्मों की सत्ता पायी जाती है। उदाहरणार्थ- सोने के घड़े को लिया जा सकता है। विवक्षित घड़ा अपने द्रव्य में है, अपने क्षेत्र में है तथा अपने काल में है एवं अपनी पर्याय में है, दूसरे पदार्थों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से नहीं है। घड़ा, घड़ा रूप ही है, कपड़ा या चटाई रूप नहीं है, वह अपनी जगह है कपड़े और चटाई की जगह नहीं है, वह अपने समय में है, दूसरे के समय या अतीत, अनागत समय में नहीं है; वह अपनी घट पर्याय में है, कपड़ा, चटाई आदि की हालत में नहीं है। जिस समय उसी घड़े के सत्व, ज्ञेयत्व या प्रमेयत्व आदि सामान्य धर्मों की अपेक्षा विचार करते हैं, तब वे सत्व आदि सामान्य धर्म घड़े के स्वपर्याय रूप ही हो जाते हैं, उस समय कोई भी पर पर्याय नहीं रहती; क्योंकि सत्, ज्ञेय या प्रमेय कहने से सभी वस्तुओं का ग्रहण हो जाता है। सत् की दृष्टि से तो घट, पट आदि अचेतन तथा मनुष्य, पशु आदि चेतन में कोई भेद नहीं है। सभी सत् की दृष्टि से सजातीय हैं, कोई विजातीय नहीं है, जिससे व्यावृत्ति की जाय। अतः घड़े का सत् ज्ञेय, प्रमेय आदि सामान्यदृष्टि से विचार करने पर सभी सत् रूप से घड़े के स्वपर्याय रूप फलित होते हैं, सभी सजातीय हैं, उस समय घड़े की किससे व्यावृत्ति की जाय ? व्यावृत्ति तो विजातीय से होती है। सत्, ज्ञेय आदि की दृष्टि से तो घड़े का विजातीय कोई है ही नहीं। जब पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से विचार करते हैं तो घड़ा पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से सत् है, धर्म, अधर्म, आकाशादि द्रव्यों की अपेक्षा असत् है। पौद्गलिक घड़े का पौद्गलिकत्व ही स्वपर्याय है तथा जिन धर्म, अधर्म, आकाश और अनन्त जीव द्रव्यों से घड़ा व्यावृत्त होता है, वे सब अनन्त ही परपदार्थ परपर्याय हैं। घड़ा पौद्गलिक है, धर्माधर्मादि द्रव्यरूप नहीं है । घड़ा पुद्गल होकर भी पार्थिव पृथ्वी का बना है। जल, आग या हवा आदि से नहीं बना है। अतः पार्थिवत्व घड़े की स्वपर्याय है तथा जल आदि अनन्त परपर्याय है, जिनसे कि घड़ा व्यावृत्त रहता है। इस तरह आगे भी जिस रूप से घड़े की सत्ता हो, उसे स्व-पर्याय तथा जिससे घड़ा व्यावृत्त होता हो, उन्हें परपर्याय समझ लेना चाहिए ।
क्षेत्र की दृष्टि से जब घड़े पर त्रिलोक में रहने वाले रूप से व्यापक क्षेत्रदृष्टि से विचार करते हैं तो वह किसी से व्यावृत्त नहीं होता, अतः त्रिलोकरूप व्यापक क्षेत्र
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